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________________ अध्ययन ७ १९५ विवेचन - इस प्रकार हरी वनस्पति का छेदन भेदन करने वाला जीव तथा जो दूसरे स्थावर और त्रस प्राणियों का घात करते हैं, उनकी आयु का भी अनिश्चित होना जान लेना चाहिए । अर्थात् बचपन से लेकर वृद्ध अवस्था तक किसी भी अवस्था में उनका मरण हो जाता है ।। संबुज्झहा जंतवो ! माणुसत्तं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो। एगंत दुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ. ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - संबुण्झहा - संबुझह-समझो, जंतवो !- हे प्राणी !, माणुसत्तं - मनुष्यत्व, बालिसेणं - विवेकहीन पुरुष को, अलंभो - अलाभ, एगंतदुक्खे - एकान्त दुःखमय, जरिए व- ज्वर से पीड़ित की तरह, विप्परियासुवेइ - विपर्यास को-सुख के स्थान पर दुःख को प्राप्त होता है । भावार्थ - हे जीवो ! तुम बोध प्राप्त करो । मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है । तथा नरक और तिर्यञ्च में होने वाले दुःखों को देखो । विवेकहीन जीव को बोध नहीं प्राप्त होता है । यह संसार ज्वर से पीडित की तरह एकान्त दु:खी है और सुख के लिये पाप करके यह दुःख भोगता है । इहेगे मूढा पवयंति मोक्खं, आहार-संपज्जण-वज्जणेणं। एगे य सीओदग-सेवणेणं, हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥ १२ ॥ कंठिन शब्दार्थ - मूढा - मूर्ख, पवयंति - बतलाते हैं, मोक्खं - मोक्ष, आहारसंपजण वजणेणं - आहार संपज्जन-नमक खाना छोड़ने से, सीओदगसेवणेणं - शीतल जल के सेवन से, हुएण - होम (हवन) से । भावार्थ - इस लोक में कोई अज्ञानी नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं और कोई शीतल जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं एवं कोई होम करने से मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं । विवेचन - गाथा में "आहारसंपज्जण" शब्द दिया है । इसका अर्थ है आहार की सम्पत्ति । अर्थात् रस की पुष्टि जो करे उसको आहारसंपज्जण कहते हैं । जिसका अर्थ है नमक । नमक पांच प्रकार का कहा गया है यथा - सैन्धव, सौवर्चल, बिड. रौम और सामद्र । सब रसों की अभिव्यक्ति नमक से ही होती है । बिना नमक का रस, बिना नेत्र के शेष इन्द्रियाँ, दया रहित धर्म और सन्तोष रहित सुख नहीं है और भी कहा है कि, रसों में नमक, चिकने पदार्थों में तैल और चर्बी बढ़ाने में घृत सर्वश्रेष्ठ है। अतः नमक के छोड़ देने से सम्पूर्ण रसों का त्याग हो जाता है और रसों के त्याग से मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा कितने ही परवादियों का कथन है और कितनेक परवादियों का कथन है कि, लहसुन, प्याज, उँटनी का दूध, गौ मांस और मद्य इन पांच वस्तुओं के त्याग से ही मुक्ति प्राप्त होती है। वारिभद्रक आदि भागवत् विशेष की मान्यता है कि सचित्त जल का उपयोग करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है वे युक्ति देते हैं कि जैसे जल बाहर के मैल को दूर करता है. वस्त्र की शद्धि करता है इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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