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________________ अध्ययन २ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जगती - जगत्-संसार में, पुढो - पृथक्-अलग अलग, कम्मेहिं - कर्मों के द्वारा, लुप्पंति - लुप्त होते हैं-दुःख पाते हैं, सयं - अपने, एव - ही कडेहिं - किये हुए, अपुट्ठयं - फल भोगे बिना, णो मुच्चेज - मुक्त नहीं हो सकता है। भावार्थ - जो जीव सावद्य कर्मों का अनुष्ठान नहीं छोड़ते हैं उनकी यह दशा होती है-संसार में अलग-अलग निवास करने वाले प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए न आदि यातना स्थानों में जाते हैं । वे अपने कर्मों का फल भोगे बिना मुक्त नहीं हो सकते हैं। देवा गंधव्व-रक्खसा, असुरा भूमिचरा सरीसिवा । राया णर सेट्टि-माहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया । ५। कठिन शब्दार्थ - देवा - देव, गंधव्व - गन्धर्व, रक्खसा- राक्षस, असुरा - असुर, भूमिचरा - भूमिचर-भूमि पर चलने वाले, सरीसिवा - सरीसृप-सरक कर चलने वाले तिर्यंच, राया - राजा, णर - नर-मनुष्य, सेट्टि - श्रेष्ठि-नगर के श्रेष्ठ पुरुष, माहणा - माहन-ब्राह्मण, चयंति - छोड़ते हैं, दुक्खिया - दुःखित हो कर। - भावार्थ - देव, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, तिर्यंच चक्रवर्ती, साधारण मनुष्य, नगर का श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण ये सभी दुःखी होकर अपने स्थानों को छोड़ते हैं । - विवेचन - ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा भवनपति और वाणव्यन्तर देव, राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती तथा चक्रवर्ती के रत्न रूप हस्ति रत्न, अश्व रत्न आदि अपने स्थान को छोड़ते समय दुःखी होते हैं परन्तु अपने सुख मय स्थान को छोड़ना पड़ता है क्योंकि जगत् में जितने स्थान हैं वे सब अनित्य हैं। कामेहि य संथवेहि गिद्धा, कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुए, एवं आउक्खयंमि तुट्टइ ॥६॥ - कठिन शब्दार्थ - कामेहि - विषय भोग की तृष्णा, संथवेहि - परिचित पदार्थों में, कम्मसहा - अपने कर्म का फल भोगते हुए, बंधणच्चुए - बंधन से छूटा हुआ, ताले - ताल फल। भावार्थ - विषय भोग की तृष्णा वाले तथा माता-पिता और स्त्री आदि परिचित पदार्थों में आसक्त रहने वाले प्राणी अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयु क्षीण होने पर इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त होते हैं जैसे बंधन से छूटा हुआ ताल फल जमीन पर गिर पडता है। विवेचन - अज्ञानी पुरुष विषय भोग का सेवन करके अपनी तृष्णा को निवृत्त करना चाहता है वह इस लोक और परलोक में केवल क्लेश ही पाता है क्यों कि उसकी तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। जैसे - कोई व्यक्ति अग्नि को तप्त कर देने के लिये उसमें लकड़ियां डालता रहे तो वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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