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अध्ययन ९
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साधु वह खेल न खेले तथा उस खेल के बीच होकर भी न जावे। साधु अपनी मर्यादा का पालन करे किन्तु हंसी, ठठ्ठा, मजाक न करे। क्योंकि भगवती सूत्र में कहा है -
"जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा!, सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा"
. अर्थ - हे भगवन् ! हंसता हुआ अथवा उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधता है ?
उत्तर - हे गौतम ! सात (आयुष्य को छोड़कर) या आठ कर्म प्रकृतियों को बान्धता है। हंसने के विषय में हिन्दी कवि ने तो इस प्रकार कहा है ।
ज्ञानी तो घट में हंसे, मुनि हंसे मुलकन्त। पण्डित तो नैना हंसे, हड़ हड़ मूर्ख हसन्त । अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्यए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थ हियासए ॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - अणुस्सुओ - अनुत्सक-उत्सुक न हो, उरालेसु - उदार विषयों में, जयमाणो - यल पूर्वक, परिव्वए - संयम पालन करे, चरियाए - चर्या में, अप्पमत्तो - अप्रमत्त, अहियासए- सहन करे ।
भावार्थ - साधु मनोहर शब्दादि विषयों में उत्कण्ठित न हो किन्तु यत्नपूर्वक संयम पालन करे तथा भिक्षाचरी आदि में प्रमाद न करे एवं परीषह और उपसर्गों की पीड़ा होने पर सहन करे ।
हम्ममाणो ण कुप्पेज, वुच्चमाणो ण संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे ।।३१॥
कठिन शब्दार्थ.- हम्ममाणो - मारा जाता हुआ, कुप्पेज - क्रोध करे, वुच्चमाणो - गाली देने पर, संजले- उत्तेजित होना, समणे- प्रसन्नता पर्वक, कोलाहलं- हल्ला ।
भावार्थ - साधु को यदि कोई लाठी आदि से मारे या गाली देवे तो साधु प्रसन्नता के साथ सहन करता रहे परन्तु विपरीत वचन न बोले और हल्ला न करे ।
विवेचन - कोई अज्ञानी पुरुष साधु को लाठी, डण्डा, मुक्का आदि से मारे अथवा गाली आदि देकर तिरस्कार करे तो साधु होहल्ला आदि न करते हुए तथा मन में भी दुर्भाव न लाते हुए समभाव पूर्वक सहन करे।
लद्धे कामे ण पत्येज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥३२॥
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