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________________ श्री सूयंगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ *******........ कठिन शब्दार्थ - परगेहे - गृहस्थ के घर में, णिसीयए बैठे, गामकुमारियं ग्राम के लड़कों का, किड्डुं क्रीडा, अइवेलं - मर्यादा रहित । भावार्थ - साधु, किसी रोग आदि अन्तराय के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे तथा ग्राम के लड़कों का खेल न खेले एवं वह मर्य्यादा छोड़कर न हँसे । विवेचन - साधु को गृहस्थ के घर जाकर नहीं बैठना चाहिए । इस विषय में दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में कहा भी है २३८ गोयरग्गपविट्ठस्स, णिसिज्जा जस्स कप्पड़ । इमेरिसमणायारं, आवज्जइ अबोहियं ॥ ५७ ॥ विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्धाओ, पडिकोहो अगारिणं ॥ ५८ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वा वि संकणं । कुशीलवगुणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ॥ ५९ ॥ तिण्हमण्णयरागस्स, णिसिज्जा जस्स कप्पड़ । जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो ॥ ६० ॥ साधु के अर्थ - साधु को गृहस्थी के घर बैठना नहीं चाहिए क्योंकि गृहस्थ के घर बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश होने की तथा प्राणियों का वध होने से संयम दूषित होने की संभावना रहती है। उस समय यदि कोई भिखारी भिक्षा के लिये आवे तो उसकी भिक्षा में अन्तराय होने की सम्भावना रहती है। और साधु के चारित्र पर सन्देह होने से गृहस्थ कुपित भी हो सकता है । यहाँ तक कि मिथ्यात्व की प्राप्ति हो सकती है ।। ५७-५८ ।। गृहस्थ के घर बैठने से साधु के ब्रह्मचर्य की गुप्ति अर्थात् रक्षा नहीं हो सकती है और स्त्रियों के विशेष संसर्ग से ब्रह्मचर्य व्रत में शङ्का उत्पन्न हो सकती है। इसलिये कुशील को बढ़ाने वाले इस स्थान को साधु दूर से ही वर्ज दे ।। ५९ ॥ ऊपर बतलाया हुआ उत्सर्ग (सामान्य) मार्ग है अब इस विषय में शास्त्रकार अपवाद मार्ग बताते हैं जरा ग्रस्त (बुड्डा), व्यधित ( रोगी) और तपस्वी इन तीन में से किसी भी साधु को कारणवश गृहस्थ के घर बैठना कल्पता है अर्थात् शारीरिक दुर्बलता आदि के कारण यदि ये गृहस्थ के घर बैठें तो पूर्वोक्त दोषों की संभावना नहीं रहती है। ये तीन अपवाद आगमिक हैं इनके अतिरिक्त चौथा कोई अपवाद नहीं है। गांव के लड़के-लड़की जहाँ गेन्द या गुल्ली डण्डा आदि खेलते हैं उसको ग्रामकुमारिका कहते हैं । - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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