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अध्ययन ३ उद्देशक ३
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कठिन शब्दार्थ - मोक्ख विसारए - मोक्ष विशारद-मोक्ष (रत्नत्रयी) की प्ररूपणा करने में विद्वान् दुपक्ख - द्विपक्ष का, सेवह - तुम सेवन करते हो।
भावार्थ - अन्यतीर्थियों के पूर्वोक्त प्रकार से आक्षेप करने पर मोक्ष की प्ररूपणा करने में विद्वान् मुनि उनसे यह कहे कि इस प्रकार जो आप आक्षेपयुक्त वचन कहते हैं सो आप असत्पक्ष का सेवन करते हैं । . .
तुब्भे भुंजह पाएस, गिलाणो अभिहडंमि य ।। तं च बीओदगं भोच्चा, तमुद्दिसादि जंकडं ॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - पाएसु - धातु पात्रों में, भुंजह - भोजन करते हो, अभिहडंमि - गृहस्थों से भोजन मंगवाते हैं, बीओदगं - बीज और कच्चे जल का, तं - उसको, उद्दिस - उद्देश करके, आदि - आदि वगैरह, कडं- कृत-बनाया गया है ।
भावार्थ - आप लोग काँसी आदि के पात्रों में भोजन करते हैं तथा रोगी साधु को खाने के लिये गृहस्थों के द्वारा आहार मँगाते हैं इस प्रकार आप लोग बीज और कच्चे जल का उपभोग करते हैं तथा आप औद्देशिक आदि आहार-भोजन करते हैं। ... विवेचन - परिग्रह के सर्वथा त्यागी साधु को कांसी, पीतल आदि धातु के बर्तन रखना तथा गृहस्थ के इन बर्तनों में भोजन करना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार गृहस्थ से भोजन आदि मंगा कर खाना और उससे सेवा करवाना भी नहीं कल्पता है।
लित्ता तिव्वाभितावेणं, उझिया असमाहिया । णातिकण्डूइयं सेयं, अरुयस्सावरण्झइ ॥१३॥
कविन शब्दार्थ - लित्ता - लिप्त, तिव्वाभितावेणं - तीव्र अभिताप से, उझिया - विवेक शून्य, असमाहिया - शुद्ध अध्यवसाय से रहित, अति कण्डूइयं - अत्यंत खुजलाना, सेयं - श्रेष्ठ, अरुयस्स - घाव का, अवरज्झइ - विकार उत्पन्न होता है।
भावार्थ - आप लोग कर्मबन्ध से लिप्त होते हैं तथा आप सद्विवेक से हीन और शुभ अध्यवसाय से वर्जित हैं । देखिये व्रण को अत्यन्त खुजलाना अच्छा नहीं है क्योंकि उससे विकार उत्पन्न होता है ।
तत्तेण अणुसिट्ठा ते, अपडिण्णेण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वई किई ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - तत्तेण - तत्त्व से, अणुसिट्ठा - अनुशासित अपडिण्णेण - अप्रतिज्ञ, णियए - निश्चित, असमिक्खा - असमीक्ष्य बिना विचारे, वई - वाक्-वाणी किई - कृति-करना।
भावार्थ - सत्य अर्थ को बतलाने वाला तथा त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को
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