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________________ तिविहा - त्रिविध, उवसग्गा- उपसर्गों को, लोमादीयं - रोम आदि को भी, हारिसे (हरिसे ) - हर्षित करे सुण्णागार - शून्य गृह में, गओ गया हुआ । - भावार्थ - शून्य गृह में गया हुआ महामुनि तिर्यंच मनुष्य तथा देवता सम्बन्धी उपसर्गों को सहन करे । भय से अपने रोम को भी हर्षित न करे । अध्ययन २ उद्देशक २ - विवेचन - इस गाथा में भी जिनकल्पी मुनि के विषय में ही कहा गया है। सूर्यास्त के बाद जनकल्पी मुनि विहार करते हुए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ते हैं । वह चाहे सड़क हो सूना घर हो, चाहे श्मशान हो । वहाँ रहे हुए जिनकल्पी मुनि को देव मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई उपसर्ग हो उसे समभाव पूर्वक सहन करे । नोट - नैरयिक जीव तो नरक में स्वयं दुःख में पड़े हुए हैं वहां का आयुष्य पूर्ण हुए बिना वे बाहर नहीं आ सकते। अतएव वे किसी को दुःख पीड़ा आदि उपसर्ग नहीं दे सकते हैं। इसीलिये उपसर्ग देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी तीन ही कहे गये हैं। चौथा नैरयिक सम्बन्धी नहीं । णो अभिकंखेज्ज जीवियं, णोऽवि य पूयण पत्थर सिया । अब्भतथ मुविंति भेरवा, सुण्णागार गयस्स भिक्खुणो ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अभिकंखेज्ज इच्छा करे, पूयण पत्थर- पूजा का प्रार्थी, अब्भत्थं अभ्यस्त, उविंति प्राप्त होते हैं । - Jain Education International - - भावार्थ - उक्त उपसर्गों से पीडित होकर साधु जीवन की इच्छा न करे तथा पूजा, मान बड़ाई की भी प्रार्थना न करे । इस प्रकार पूजा और जीवन से निरपेक्ष होकर शून्य गृह में जो साधु निवास करता है उसको भैरवादिकृत उपसर्ग सहन का अभ्यास हो जाता है । विवेचन - साधु मुनिराज जीवन से निरपेक्ष होकर उपसर्गों को सहन करे तथा उपसर्गों का सहन करने से मेरी पूजा प्रशंसा होगी ऐसी इच्छा भी न करे । उवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स विविक्कमासणं । सामाइय माहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - उवणीयतरस्स - उपनीततर- अत्यंत उपनीत जिसने अपनी आत्मा को ज्ञानादि में स्थापित किया है, ताइणो स्व और पर की रक्षा करने वाला, भयमाणस्स सेवन करने वाले का, विविक्कं विविक्त - स्त्री, पशु, नपंसुक वर्जित आसणं प्रदर्शित करे । आसन स्थान को, भए - भय, दंसए भावार्थ - जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि में अतिशय रूप से स्थापित किया है, जो अपनी ७१ - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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