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- श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - इस प्रकार अकेला विचरने वाला अभिग्रहधारी साधु, शून्यगृह का द्वार न खोले और न बन्द करे। किसी के पूछने पर कुछ न बोले तथा उस घर का कचरा न निकाले और तृण भी न बिछावे ।
विवेचन - गाथा १२ और १३ ये दोनों गाथायें जिनकल्पी मुनि के लिये हैं क्योंकि बारहवीं गाथा में 'एगे चरे' शब्द दिया है इससे स्पष्ट होता है कि अकेला विहार करने वाले मुनि के विषय में गाथा में कहे गये सभी नियम लागू होते हैं। किन्तु स्थविरकल्पी मुनि के लिये नहीं। . ..
उपरोक्त दो गाथाओं का उद्धरण देकर कोई लिखते हैं कि - स्थविरकल्पी साधु अपने ठहरे हुए . मकान के कपाट (किंवाड़) स्वयं ने खोले न बन्द करें। परन्तु यह लिखना आगम के अनुकूल नहीं है। क्योंकि ये दोनों गाथाएँ जिनकल्पी से सम्बन्धित हैं स्थविरकल्पियों से नहीं।
स्थविर कल्पी में साधु की तरह साध्वी का ग्रहण हुआ है। साध्वियों को तो कपाट बंद . करके ही रात्रि में रहने का बृहत्कल्प सूत्र में विधान है। उपरोक्त दो गाथाओं में तो उस मकान में से कचरा निकालना और तृण आदि बिछाने का भी निषेध किया है इससे भी स्पष्ट है कि ये दोनों गाथाएं जिनकल्पी से सम्बन्धित है क्योंकि अपने स्थान का कचरा निकालना तृण आदि निकालना ये सब स्थविर कल्पी साधु साध्वी करते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि ये दोनों गाथायें स्थविर कल्पी, साधु साध्वी के लिए लागू नहीं होती है।
विशेष स्पष्टीकरण के लिये श्रीमदूज्जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी म. सा. द्वारा विरचित सद्धर्म मण्डन में कपाट अधिकार देखना चाहिये । ..
जत्थऽत्थमिए अणाउले, सम-विसमाई मुणीहियासए । चरगा अदुवा वि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - अत्यमिए - सूर्य अस्त हो, अणांउले - अनाकुल-क्षोभ रहित, समविसमाई - सम विषम यानी अनुकूल और प्रतिकूल, अहियासए - सहन करे, चरमा - चरक-दंशमशक आदि, भेरवा- भयंकर, सरीसिवा - सरीसृप-सांप आदि ।
भावार्थ - चारित्री पुरुष, जहाँ सूर्य अस्त हों वहीं क्षोभरहित होकर निवास करे । वह स्थान, आसन और शयन के अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो उसको वह सहन करे । उस स्थान पर यदि दंश मशक आदि हो अथवा भयंकर प्राणी हों अथवा साँप आदि हों तो भी वहीं निवास करे ।
विवेचन - यह गाथा भी जिनकल्पी मुनि से सम्बधित है। तिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया। लोमादीयं ण हारिसे, सुण्णागार गओ महामुणी ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - तिरिया - तिर्यंच संबंधी, मणुया - मनुष्य संबंधी, दिव्यगा - देवजनित,
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