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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000००००००००० क्रोधित होकर घर से निकल जाती है । फिर जंगल में जाती हुई उस स्थिति को देख कर चोर जार आदि उसका पीछा कर उसे पकड़ लेते हैं और उसे अनेक तरह से कष्ट पहुँचाते हैं तब वह अपने घर वालों को याद करती है। इसी प्रकार कायर साधक भी परीषह उपसर्ग आने पर अपने पूर्व भोगी हुई सुख सुविधाओं को और स्वजनों को याद करता है।
एए भो कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवावस गया गिहं ।। १७ ॥ त्ति बेमि ।
कठिन शब्दार्थ - कसिणा - कृत्स्न-सम्पूर्ण, फरुसा - परुष-कठोर, दुरहियासया - दुःसह, सरसंवित्ता - बाणों से पीड़ित, कीवा - क्लीव-कायर-नपुंसक, अवस - घबरा कर, गिहं - घर को, गया - चले जाते हैं।
भावार्थ - हे शिष्यो ! पूर्वोक्त उपसर्ग सभी असह्य और दुःखदायी हैं उनसे पीड़ित होकर कायर पुरुष फिर गृहवास को ग्रहण कर लेते हैं । जैसे बाण से पीड़ित हाथी संग्राम को छोड़कर भाग जाता है इसी तरह गुरुकर्मी जीव संयम को छोड़कर भाग जाते हैं ।
त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन्. जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ।
विवेचन - जिस प्रकार संग्राम में गया हुआ कोई कोई हाथी बाणों के प्रहार से पीडित होने पर संग्राम छोड़ कर भाग जाता है उसी प्रकार कायर साधक भी परीषह उपसर्गों से,पीडित होकर संयम छोड़ कर वापिस गृहस्थ अवस्था में चले जाते हैं ।
॥ इति पहला उद्देशक ॥
दूसरा उद्देशक उत्थानिका - प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल परीषहों का वर्णन किया गया है । अब इस उद्देशक में अनुकूल उपसर्गों का वर्णन किया जाता है -
अहिमे सुहुमा संगा, भिक्खूणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - सुहुमा - सूक्ष्म, संगा - संग-माता पिता आदि के साथ संबंध, दुरुत्तरा - दुस्तर, विसीपंति - विषाद को प्राप्त होते हैं-बिगड़ जाते हैं, जवित्तए - निर्वाह करने में ।
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