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अध्ययन ११
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भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष दोषों को हटा कर मन वचन और काया से जीवन पर्यन्त किसी के साथ विरोध न करे ।
विवेचन - इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले को अथवा संयम को रोकने वाले कर्मों को जीतकर जो मोक्ष मार्ग का पालन करने में समर्थ है उस पुरुष को यहाँ पर प्रभु कहा है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग रूप दोषों को दूर करके तीन करण तीन योग से किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न करें यही ज्ञान का सार है ॥
संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिच्चं, वज्जयंते अणेसणं ॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - संखुडे - संवृत, महापण्णे - महाप्राज्ञ, धीरे - धीर, दत्तेसणं - दत्त-दिया हुआ . एषणीय आहार, चरे - ग्रहण करे, एसणा समिए - एषणा समिति से युक्त, णिच्चं - नित्य, वज्जयंते - वर्जन करे, अणेसणं - अनेषणीय का। .
भावार्थ - वह साधु बड़ा बुद्धिमान् और धीर है जो सदा दूसरे का दिया हुआ एषणीय ही आहार आदि ग्रहण करता है तथा जो एषणा समिति से युक्त रह कर अनेषणीय आहार आदि को वर्जित करता है ।
विवेचन - एषणा समिति के ग्रहण से दूसरी चारों समितियों १. ईर्या समिति २. भाषा समिति ३. आदानः भण्ड मात्र निक्षेपणा समिति ४. उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल परिस्थापनिका समिति का ग्रहण हो जाता है। क्योंकि एषणा के कारण ही चलना, बोलना, उठना, धरना और त्यागना होता है। - गाथा में एषणीय शब्द दिया है, इससे आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि सबका ग्रहण कर लेना चाहिए। ये चारों चीजें साधु के निमित्त बनाई गई हों तो साधु के लिए अनेषणीय और अकल्पनीय हो जाती है। मकान के विषय में मकान मालिक से अच्छी तरह पूछताछ कर लेनी चाहिए। यह मकान साधु के निमित्त से तो नहीं बनाया गया है ? मकान बनाते समय साधु के निमित्त भाव भी मिल गए हों अर्थात् मन में भी यह विचार आ गया हो कि श्रावक, श्राविका तो धर्मध्यान करेंगे ही किन्तु साधु, साध्वी के लिए भी काम आएगा, तो वैसा मकान साधु साध्वी के लिए अनेषणीय एवं अकल्पनीय है ऐसे मकान में साधु, साध्वी को नहीं उतरना चाहिए ।। १३ ॥
भूयाइं च समारंभ, तमुहिस्सा य जं कडं । तारिसं तं ण गिण्हेज्जा, अण्ण-पाणं सुसंजए ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - भूयाई - भूतों-प्राणियों का, समारंभ- समारंभ कर, तमुदिस्सा - साधु के उद्देश्य
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