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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - कोई निमित्त सत्य होता है और किसी किसी निमित्तवादी का वह ज्ञान विपरीत होता है। यह देखकर विद्या का अध्ययन करते हुए अक्रियावादी विद्या के त्याग को ही कल्याणकारक कहते हैं।
विवेचन - उपरोक्त प्रकार से क्रियावाद का समर्थन करने पर शून्यवादी कहता है कि उपरोक्त अष्टांग निमित्त कहीं झूठा भी हो जाता है, इसलिए हमारा सिद्धांत शून्यवाद ही उत्तम हैं परन्तु शून्यवाद का खण्डन तो पहले कर दिया गया है।
ते एवमक्खंति समिच्चलोगं, तहा तहा समणा माहणा य । सयं कडंणण्णकडंच दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - लोगं - लोक को, समिच्च - भलीभांति जान कर, सयं - स्वयं, कडं - कृत, णण्णकडं - अन्यकृत नहीं है, विजाचरणं - विद्या (ज्ञान) और आचरण (क्रिया) से, पमोक्खं - मोक्ष ।
भावार्थ - शाक्य, भिक्षु और ब्राह्मण आदि अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर क्रिया के अनुसार फल होना बताते हैं और वे यह भी कहते हैं कि दु:ख अपने करने से होता है दूसरे के . करने से नहीं होता है परन्तु तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया से मोक्ष कहा है।
.. विवेचन - क्रियावादियों का कथन हैं कि सब कार्य क्रिया से ही सिद्ध होता है.। ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, क्रियावाद का यह कथन मिथ्या हैं क्योंकि -
पढमं णाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अण्णाणी किं काही, किंवा णाही सेयपावगं॥
अर्थात् - पहले ज्ञान है, उसके बाद दया है इस प्रकार सभी साधु आचरण करते हैं, सम्यग् ज्ञान , से रहित अज्ञानी पुरुष क्या कर सकता है ? अर्थात् ज्ञान पूर्वक क्रिया करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अज्ञानी जिसे साध्य-साधन का भी ज्ञान नहीं है वह क्या कर सकता है ? वह अपने पुण्यपाप एवं कल्याण अकल्याण को भी कैसे समझ सकता है ?
इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता है।। ११ ॥ ते चक्खु लोगंसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तहा तहा सासय-माहु लोए, जंसि पया माणव! संपगाढा ।।१२ ॥
कठिन शब्दार्थ - चक्खु - चक्षु-नेत्र, णायगा - नायक, मग्गाणुसासंति - मार्ग का अनुशासन करते हैं, हियं - कल्याण, पयाणं - प्रजा के लिए, सासयं - शाश्वत, संपगाढ - संप्रगाढ-आसक्त ।
भावार्थ - वे तीर्थंकर आदि जगत् के नेत्र के समान हैं वे इस लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं वे प्रजाओं
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