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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
भावार्थ - परमाधार्मिक, निर्विवेकी नैरयिक जीवों को लोहमय मार्ग के समान तप्त भूमि पर बलात्कार से चलाते हैं तथा रुधिर और पीव से पिच्छिल (कीचड़ वाली) भूमि पर भी उनको चलने के लिये बाध्य करते हैं । जिस कठिन स्थान में जाते हुए नैरयिक जीव रुकते हैं उस स्थान में बैल की तरह दण्ड आदि से मारकर उन्हें वे ले जाते हैं ।
ते संपगाढंसि पवज्जमाणा, सिलाहि हम्मंति णिपातिणीहि । संतावणी णाम चिरट्ठिईया, संतप्पइ जत्थ असाहुकम्मा ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - संपगाढंसि - तीव्र वेदना युक्त, सिलाहि- शिलाओं के द्वारा, हम्मति - मारे जाते हैं, णिपातिणाहि- गिराई जाने वाली, चिराइया - चिर काल की स्थिति वाली, संतप्पइ - संतप्त किए. जाते हैं ।
भावार्थ - तीव्र वेदनायुक्त नरक में पड़े हुए नैरयिक जीव सामने से गिरती हुई शिलाओं से मारे जाते हैं । कुम्भी नाम के नरक में गये हुए प्राणियों की स्थिति बहुत काल की होती है । पापी उसमें चिरकाल तक ताप भोगते हैं ।
कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, तओ वि दड्डा पुण उप्पयंति । ते उडकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खजति सणप्फएहिं ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - कंदूसु - गेंद के आकार की कुंभी में, दड्डा - जलते हुए, उप्पयंति - ऊपर उठते हैं-उछलते हैं, उसकाएहिं - द्रोणकाक के द्वारा, सणफएहिं - सनखपद-सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा, खजति - खाने जाते हैं।
भावार्थ:- नरकपाल, निर्विवेकी नैरयिक जीव को गेंद के समान आकारवाली कुम्भी में डाल कर पकाते हैं, फिर वे वहां से भुने जाते हुए चने की तरह उड कर ऊपर जाते हैं वहां वे द्रोण काक द्वारा खाये जाते हैं जब वे दूसरी ओर जाते हैं तब सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा खाये जाते हैं । " समूसियं णाम विधूम ठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति ।। : अहोसिर कट्ट विगत्तिऊणं, अयं व सत्येहि समोसवेंति ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - विधूम ठाणं - धूम रहित अग्नि का स्थान, सोयतत्ता - शोक तप्त, अहोसिरं - अधोशिर करके, विगत्तिऊणं - काट कर, सत्येहिं - शस्त्रों से, समोसवेंति - खण्ड-खण्ड
कर देते हैं।
भावार्थ - ऊंची चिता के समान निर्धूम अग्नि का एक स्थान है । वहां गये हुए नैरयिक जीव शोक से तप्त होकर करुण रोदन करते हैं । परमाधार्मिक, उन जीवों का शिर नीचे करके उनका शिर काट डालते हैं तथा लोह के शस्त्रों से उनकी देह को खण्ड खण्ड कर देते हैं ।
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