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अध्ययन १ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००
दूसरा उद्देशक आघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - आघायं - कहना है कि, उववण्णा - उत्पन्न हुए, वेदयंति - भोगते हैं, सुहं - सुख, दुक्खं - दुःख, लुप्पंति - लुप्त होते हैं-जाते हैं, ठाणओ - अपने स्थान से ।
भावार्थ - किन्ही का कहना है कि जीव, पृथक् पृथक् हैं यह, युक्ति से सिद्ध होता है तथा वे पृथक् पृथक् ही सुख दुःख भोगते हैं अथवा एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में जाते हैं ।
विवेचन - प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भूतवादी आदि का मत बता कर उसका खण्डन किया गया है। अब इस उद्देशक में उन से बचे हुए नियतिवादी आदि मिथ्यादृष्टियों का मत बता कर उसका खण्डन किया जायेगा। नियतिवादी आदि परतीर्थियों के सिद्धान्तानुसार बन्धन का ही अस्तित्व नहीं है। यह इस उद्देशक में भली भांति बताया जायेगा।
णतं सयं कडं दुक्खं, कओ अण्णकडं च णं । . सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ॥२॥
सयं कडं ण अण्णेहि, वेदयंति पुढो जिया । संगइयं तं तहा तेसिं, इह मेगेसिमाहियं ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - सयं - स्वयं, कडं - कृत-किया हुआ, अण्णकडं - अन्यकृत-दूसरे का किया हुआ, सेहियं - सैद्धिक-सिद्धि से उत्पन्न, असेहियं - असैद्धिक-सिद्धि के बिना उत्पन्न, जिया - प्राणी, संगइयं - नियतिकृत ।
भावार्थ - बाह्य कारणों से अथवा बिना कारण उत्पन्न सुख दुःख को जो प्राणी वर्ग भोगते हैं वह उनका अपना तथा दूसरे का किया हुआ नहीं है । वह उनका नियति कृत है यह नियतिवादी कहते हैं ।
विवेचन - अब नियतिवादी के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। नियतिवादी का कथन है कि यह जो सुख दुःख का अनुभव होता है वह जीवों के पुरुषकार (पुरुषार्थ) का किया हुआ नहीं है तथा काल, स्वभाव, ईश्वर, कर्म आदि अन्य पदार्थ के द्वारा भी किया हुआ नहीं है किन्तु नियति (भाग्य) से ही सुख दुःख मिलते हैं। जिस जीव को जिस समय जिस सुख दुःख का अनुभव करना होता है उसे संगति कहते हैं। अर्थात् नियति का दूसरा नाम संगति भी है। इससे प्राप्त होने वाले सुख दुःख आदि का 'सांगतिक' कहते हैं।
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