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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिए माणिणो । णिययाणिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया ॥ ४॥ कठिन शब्दार्थ - जंपता कहते हुए, पंडिए माणिणो संतं नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार का, अयाणंता नहीं जानते हुए, अबुद्धिया - बुद्धिहीन ।
पंडित मानते हैं, णिययाणिययं
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भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से नियतिवाद का समर्थन करने वाले नियतिवादी अज्ञानी होकर भी अपने को पण्डित मानते हैं । सुख दुःख नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार के हैं परन्तु बुद्धिहीन नियतिवादी यह नहीं जानते हैं ।
एवमेगे उपासत्था, ते भुज्जो विप्पगब्भिया ।
एवं उवट्टिया संता, ण ते दुक्ख विमोक्खया ॥ ५ ॥
कठिन शब्दार्थ- पासत्था पार्श्वस्थ, विप्पगब्भिया धृष्टता करते हैं, उवट्ठिया उपस्थित होकर, दुक्खविमोक्खया - दुःख से मुक्त होने में ।
भावार्थ - नियति को ही सुख दुःख का कर्त्ता मानने वाले नियतिवादी पूर्वोक्त प्रकार से एकमात्र नियति को ही कर्त्ता बताने की धृष्टता करते हैं । वे अपने सिद्धान्तानुसार परलोक की क्रिया में प्रवृत्त होकर भी दुःख से मुक्त नहीं हो सकते हैं ।
विवेचन जैन सिद्धान्त पुरुषार्थ वाद को विशेष प्रधानता देता है नियति को प्रधानता नहीं देता । जैसा कि कहा है।
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न दैवमिति सञ्चिन्त्य, त्यजेदुद्यममात्मनः ।
अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ? ॥ १ ॥
अर्थात् भाग्य के भरोसे बैठकर उद्यम को नहीं छोड़ना चाहिये। क्यों कि बिना उद्यम किये क्या
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तिलों से तैल निकल सकता है ? अर्थात् नहीं। नीतिकार ने फिर से कहा है -
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः ।
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न हि सुप्तस्य सिंहस्य, मुखे प्रविशन्ति मृगाः ।
अर्थात् उद्यम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, भाग्य भरोसे बैठे रहने से नहीं । सिंह उद्यम करता है तब उसे शिकार मिलती है किन्तु सोते हुए सिंह के मुख में स्वयं मृग आकर प्रवेश नहीं करते हैं ।
तथाच
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी । दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।
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