SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन १ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००० दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या । यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्रदोषः ।। ... अर्थ - उद्योग करने वाले पुरुषों में सिंह के समान वीर पुरुष को लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिये हे वीर पुरुष ! भाग्य के भरोसे बैठा मत रह । पुरुषार्थ कर। पुरुषार्थ करने पर भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो फिर से विचार कर कि - मेरे पुरुषार्थ में कहां कमी रह गई है ? उस कमी को निकाल कर फिर पुरुषार्थ कर । पुरुषार्थ करने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है।. .. अतः एकान्त नियतिवाद को मानना ही ठीक नहीं है। 'सब कुछ नियति से ही होता है' इस सिद्धान्त को मानते हुए भी वे अपने सिद्धान्त के विरुद्ध क्रिया में प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु उनकी क्रिया सम्यग् ज्ञान पूर्वक न होने से वे अपनी आत्मा को दुःख से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं । आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति तर्क' नामक ग्रन्थ में बताया है कि काल, स्वभाव, नियति, कर्म (अदृष्ट) और पुरुषकार पराक्रम (पुरुषकृत पुरुषार्थ) ये पञ्च कारण समवाय हैं । इनके सम्बन्ध में एकान्त कथन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष कथन ही सम्यक्त्व है। जैन दर्शन सुख दुःख आदि को कथंचित् पुरुषकृत उद्योग से साध्य भी मानता है क्योंकि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है और क्रिया उद्योग के अधीन है। कहीं उद्योग की विभिन्नता फल की भिन्नता का कारण होती है। कहीं दो व्यक्तियों का एक साथ एक सरीखा उद्योग होने पर भी किसी को फल नहीं मिलता। यह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है। इस प्रकार कथंचित् अदृष्ट कर्म भी सुखादि का कारण है। जैसे आम, जामुन, अमरूद, अङ्गर आदि वृक्ष और बेलों में विशिष्ट काल (समय) आने पर ही फल की उत्पत्ति होती है। सर्वदा नहीं । एक ही समय में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में बोये हुए बीजों में से एक में अंकुर उग जाता है और दूसरी ऊषर मिट्टी में अंकुर नहीं उगते इसलिये स्वभाव को भी कथंचित कारण माना जाता है। आत्मा का उपयोग गुण तथा असंख्य प्रदेशी होना तथा पुद्गलों का मूर्त होना और धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि का अमूर्त होना एवं गति, स्थिति में सहायक होना आदि सब स्वभाव कृत हैं। . ... इस प्रकार काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट कर्म और पुरुषकार पराक्रम (पुरुषकृत पुरुषार्थ) ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य एवं सुखादि में सापेक्ष सिद्ध होते हैं। इस सत्य तथ्य को न मान कर एकान्त रूप से सिर्फ नियति को ही मानना दोषयुक्त है अतएव मिथ्या है । जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जिया । ____ असंकियाइं संकंति, संकियाइं असंकिणो ॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy