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अध्ययन ९
२३३ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - साधु गृहस्थ के पात्र में आहार पानी न करे तथा गृहस्थ का कुण्डा परात आदि लेकर उसमें वस्त्र आदि भी न धोवे क्योंकि गृहस्थ द्वारा उस पात्र को पहले या पीछे कच्चे पानी से धोने आदि की सम्भावना रहती है। साधु सर्दी के समय गृहस्थ की कम्बल आदि लेकर रात में ओढे अथवा उसके कपडे लेकर बिछावे और प्रातःकाल गृहस्थ को वापस दे देवे ऐसा करना भी साधु को नहीं कल्पता है, यह उसके लिये अनाचार सेवन है ।
आसंदी पलियंको य, णिसिज्जं च गिहतरे । संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - आसंदी - आसंदी-मंचिया, पलियंके - पलंग, णिसिजं - बैठेना, गिहतरे - गृहस्थ के घर में, संपुच्छणं - सावद्य पृच्छा, सरणं - भुक्त भोगों का स्मरण ।
भावार्थ - साधु मंचिया पर न बैठे और पलंग पर न सोवे एवं गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच में जो छोटी गली होती है उसमें न बैठे एवं गृहस्थ का कुशल न पूछे तथा अपनी पहिली क्रीड़ा का स्मरण न करे । इन सभी बातों को संसार भ्रमण का कारण समझकर त्याग कर दे ।
विवेचन - इस गाथा में बावन अनाचारों में से कुछ अनाचारों का वर्णन किया गया है । बेंत की बनी हुई कुर्सी तथा आराम कुर्सी आदि आसनों पर बैठने सोने आदि का निषेध किया गया है जैसा कि
गंभीरझुसिरा ( गंभीरविजया) एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणा ।।
अर्थ - मंचिया, कुर्सी आदि आसनों के छिद्र गहरे होने से उनमें जीव दिखाई न देने से उनका प्रतिलेखन होना कठिन है तथा गृहस्थ के घर में अथवा दो घरों के बीच में छोटी गली में न बैठे क्योंकि ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती है एवं स्त्रियों की शङ्का भी होती है । गृहस्थ के घर का अथवा व्यापार आदि का समाचार पूछना, उसका क्षेमकुशल पूछना एवं पहले भोगे हुए सांसारिक विषय भोगों को याद करना ये सब अनर्थ के कारण हैं । इसलिये विद्वान् मुनि इन सब बातों का सर्वथा त्याग कर दे ।। २१ ।।
जसं कित्तिं सिलोयं च, जा य वंदण-पूयणा ।
सव्वं लोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया ॥२२॥ .. कठिन शब्दार्थ - जसं - यश, कित्तिं - कीर्ति, सिलोयं - श्लोक-श्लाघा, वंदण-पूयणा -- वंदन पूजन, कामा - कामभोग ।
भावार्थ - यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन और पूजन तथा समस्त लोक के विषय भोग को संसार भ्रमण का कारण समझकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे ।
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