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________________ २८० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - मूर्ख जीव. अशुभ कर्म करके अपने पापों का नाश नहीं कर सकते हैं । परन्तु धीर पुरुष अशुभ कर्मों को त्याग कर अपने कर्मों को क्षपण करते हैं । बुद्धिमान् पुरुष लोभ और मद से दूर रहते हैं और वे सन्तोषी होकर पापकर्म नहीं करते हैं । विवेचन - अज्ञानी पुरुष सावध कार्य अर्थात् आरम्भ व परिग्रह से कर्मों का क्षय करना चाहते हैं किन्तु ऐसा नहीं होता है। धीर पुरुष अठारह पापों के त्याग से कर्मों का क्षय करते हैं। सन्तोषी पुरुष व बुद्धिमान् पुरुष तो लोभ और आठ प्रकार के मद अथवा सात प्रकार के भय से दूर रह कर अर्थात् इनका त्याग करके वे फिर से पाप का आचरण नहीं करते हैं अतएव वे संसार समुद्र को पाप कर जाते हैं।। १५ ॥ ते तीयउप्पण्णमणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाई। णेतारो अण्णेसि अणण्णणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - तीयउप्पण्णमणागयाइं - अतीत, वर्तमान और भविष्य को, तहागयाइं - यथार्थ रूप में, णेतारो - नेता, अणण्णणेया - उनका कोई नेता नहीं है, अंतकडा - अंत करने वाले। भावार्थ - वे वीतराग पुरुष जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य वृत्तान्तों को ठीक ठीक जानते हैं। वे सबके नेता हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं हैं वे जीव संसार का अन्त करते हैं। विवेचन - तीनों काल की बात को यथार्थ रूप से जानने वाले वीतराग तीर्थंकर और गणधर आदि जगत् के जीवों के नेता हैं। अर्थात् मोक्ष मार्ग को बतलाने वाले है, वे सर्व कर्मों का क्षयकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ।। १६ ॥ तेणेव कुव्वंति ण कारवेंति, भूताहिसंकाइ दुगुंछमाणा। सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्ति-धीरा य हवंति एगे ।।१७ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - भूताहिसंकाइ - प्राणियों के घात के भय से, दुगुंछमाणा - पाप से घृणा करने वाले, विप्पणमंति - संयम पालन करते हैं, विण्णत्तिधीरा - ज्ञान से धीर वीर। भावार्थ - पाप से घृणा करने वाले तीर्थंकर और गणधर आदि प्राणियों के घात के भय से स्वयं पाप नहीं करते हैं और दूसरे से भी नहीं कराते हैं किन्तु कर्म को विदारण करने में निपुण वे पुरुष, सदा पाप के अनुष्ठान से निवृत्त रहकर संयम का पालन करते हैं परन्तु कोई अन्यदर्शनी ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं अनुष्ठान से नहीं। विवेचन - वीर पुरुष प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का त्याग करके शुद्ध संयम का पालन करते हैं, इसलिए वे शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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