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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - सोना, चाँदी और स्वजन वर्ग, सभी परिग्रह इसलोक तथा परलोक में दुःख देने वाले हैं तथा सभी नश्वर हैं, अत: यह जानने वाला कौन पुरुष गृहवास को पसन्द कर सकता है ?
महयं परिगोवं जाणिया, जा वि य वंदण पूयणा इहं। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज्ज संथवं ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - परिगोव (पलिगोवं)- पंक (कीचड़) है, वंदण पूयणा - वंदन और पूजन, विउमंता - विद्वान्, दुरुद्धरे- दुर्द्धर-उद्धार करना कठिन, संथवं - संस्तव-परिचय, पयहिज्ज - त्याग दे।
भावार्थ - सांसारिक जीवों के साथ परिचय महान् कीचड़ है यह जानकर मुनि उनके साथ परिचय न करे तथा वन्दन और पूजन भी कर्म के उपशम का फल है। यह जानकर मुनि वन्दन पूजन पाकर गर्व न लावे क्योंकि गर्व सूक्ष्म शल्य है उसका उद्धार करना कठिन होता है । .. .
विवेचन - संसारी प्राणियों के साथ परिचय करने को यहाँ 'परिगोप' कहा है। जो प्राणियों को अपने में फंसा लेता है उसे परिगोप कहते हैं। वह परिगोप दो प्रकार का है। एक द्रव्य परिगोप, दूसरा भाव परिगोप। कीचड़ को द्रव्य 'परिगोप' कहते हैं और संसारी प्राणियों के साथ परिचय या आसक्ति को भाव परिगोप कहते हैं। इसके स्वरूप और विपाक को जान कर मुनि इसका त्याग कर दे।
इस गाथा की जगह दूसरी वाचना की (नागार्जुनीय वाचना) गाथा इस प्रकार है - .. पलिमंथ महं वियाणिया, जाऽविय वंदणपूयणा इह। सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं, तंपि जिणे एएण पंडिए ॥१॥ प्रश्न - भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद सूत्रों की वाचनायें कब कब हुई ?
उत्तर - भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद गौतम स्वामी १२ वर्ष तक केवली रहे। उनके बाद सुधर्मास्वामी ८ वर्ष तक केवली रहे। उनके बाद जम्बूस्वामी ४४ वर्ष तक केवली रहे। इस प्रकार ६४ वर्ष तक केवलज्ञान रहा। फिर केवलज्ञान विच्छेद चला गया। फिर श्रुत केवली (चौदह पूर्वधारी) छह हुए। वे इस प्रकार - वीर निर्वाण ६४ से ७४ तक प्रभवस्वामी। ७५ से ९८ तक शय्यम्भव स्वामी। ९८ से १४८ तक यशोभद्र स्वामी। १४८ से १५६ सम्भूति विजयस्वामी। १५६ से १७० भद्रबाहु स्वामी। १७० से २१५ तक स्थूलभद्र स्वामी। इन के दस पूर्व तो अर्थ सहित और चार पूर्व केवल मूलपाठ का ज्ञान था।
सूत्रों की वाचना - वीर निर्वाण से १६० वर्ष बाद पहली वाचना बारह काली (बारह वर्ष के दुष्काल) के बाद पाटलीपुत्र (पटना) में बाकी बचे हुए साधु इकट्ठे हुए। ग्यारह अङ्ग एकत्रित किये। दृष्टिवाद के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी नैपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उनसे स्थूलभद्र स्वामी ने दस पूर्वो का ज्ञान अर्थ सहित चार पूर्वो का ज्ञान मूलपाठ ही दिया।
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