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अध्ययन १६
एत्थ विणिग्गंथे एगे, एगविऊ, बुद्धे, छिण्णसोए, सुसंजए, सुसमिए, सुसामाइए, आयवाय- पत्ते, विऊ दुहओ वि सोय-पलिछिण्णे, णो पूया-सक्कारलाभट्ठी, धम्मट्ठी, धम्मविऊ, णियाग-पडिवण्णे, समियं चरे, दंते दविए वोसट्टकाए णिग्गंथेति वच्चे ॥ ४ ॥
स एवमेव जाणह जमहं भयंतारो ।। तिबेमि ॥
इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ॥
।। पढमो सुक्खंधो समत्तो ॥ १ ॥
कठिन शब्दार्थ एगे - एक रागद्वेष रहित, एगविक एकत्व भावना को भाने वाला, छिण्णसोए - छिन्नस्रोत - जिसके स्रोत छिन्न हो चुके, सुसंजए - सुसंयत, सुसमिए - सुसमित, सुसामाइए- सम्यक् समभाव वाला, आयवायपत्ते आत्म स्वरूप को प्राप्त, सोयपलिच्छिण्णे - स्त्रोत का छेदन करने वाला, पूयासक्कार लाभट्ठी - पूजा सत्कार और लाभ का अर्थी, धम्मविऊधर्म का विद्वान्, णियागपडिवण्णे - मोक्ष मार्ग को समर्पित, भयंतारो भय से रक्षा करने वाला । भावार्थ- पूर्व सूत्र में भिक्षु के जितने गुण बताये हैं वे सभी निर्ग्रन्थ में भी होने चाहिये । इसके सिवाय ये गुण भी निर्ग्रन्थ में आवश्यक हैं. जो पुरुष रागद्वेष रहित है और " यह आत्मा परलोक में अकेला ही जाता है" यह जानता है तथा जो पदार्थों के स्वभाव को जानने वाला और आस्रव द्वारों को रोक कर रखने वाला है जो प्रयोजन के बिना अपने शरीर की कोई क्रिया नहीं करता है अथवा इन्द्रिय और मन को वश में रखता है, जो पांच प्रकार की समितियों से युक्त रह कर शत्रु और मित्र में समभाव रखता है तथा जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानने वाला विद्वान् है एवं जिसने संसार में उतरने के मार्ग को द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से छेदन किया है, तथा पूजा सत्कार और लाभ की इच्छा न रखता हुआ केवल धर्म की इच्छा रखता है, जो धर्म के तत्त्व को जानने वाला और मोक्षमार्ग को प्राप्त है उसे समभाव से विचरना चाहिये। इस प्रकार जो जितेन्द्रिय, मुक्ति जाने योग्य और शरीर का व्युत्सर्ग किया हुआ है उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिये । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि यह मैंने तीर्थंकर देव से सुन कर आप लोगों से जो कहा है सो आप सत्य समझें क्योंकि जगत् को भय से रक्षा करने वाले श्री तीर्थंकर देव अन्यथा उपदेश नहीं करते हैं ।
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