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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
लगा। वह एक वर्ष बाद फूटा और उसके दोनों टुकड़ों के बीच में स्वर्ग लोक और मनुष्य लोक की रचना हुई ।
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सएहिं परियाएहिं, लोयं बूया कडेति य ।
तत्तं तेण वियाणंति, ण विणासी कयाइ वि ॥ ९ ॥
. कठिन शब्दार्थ- परियारहिं - अभिप्राय से, विणासी विनाशी, कयाइ वि - कभी भी । भावार्थ - पूर्वोक्त देवोप्त आदि वादी अपनी इच्छा से जगत् को किया हुआ बतलाते हैं । वे वस्तु स्वरूप को नहीं जानते हैं क्योंकि यह जगत् कभी भी विनाशी नहीं है ।
विवेचन जो अविनश्वर होता वह अजन्मा भी होता है । यदि कोई लोक को अविनाशी समझ लेता है तो वह यह भी जान लेता है कि लोक कभी उत्पन्न नहीं हुआ। वह अनादि है । अतएव वह अविनाशी भी है द्रव्यार्थ रूप से यह लोक नित्य है और पर्याय रूप अनित्य है। अमणुण्ण समुप्पायं, दुक्खमेव वियाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं णायंति संवरं ? ॥ १० ॥
कठिन शब्दार्थ - अमणुण्णसमुप्पायं - अशुभ अनुष्ठानं से उत्पन्न होता है, समुघायमजाणंता दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानने वाले, कहं ( किह) - कैसे, णायंति जान सकते हैं, संवरं - संवर- दुःख रोकने का उपाय ।
भावार्थ - अशुभ अनुष्ठान करने से ही दुःख की उत्पत्ति होती है । जो लोग दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानते हैं वे दुःख के नाश का कारण कैसे जान सकते हैं ?.
सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमाहियं ।
पुणो किड्डापदोसेणं, से तत्थ अवरज्झइ ॥ ११॥
कठिन शब्दार्थ - सुद्धे - शुद्ध, अपावए पाप रहित, आया- आत्मा, किड्डापदोसेणं - क्रीडा प्रद्वेषेण - राग द्वेष के कारण, अवरज्झइ - बंध जाता है ।
भावार्थ - इस जगत् में किन्ही का कथन है कि आत्मा शुद्ध और पाप रहित हैं फिर भी वह राग द्वेष के कारण बँध जाता है ।
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विवेचन - जो आत्मा की तीन राशि ( अवस्था) बताता है उसे 'त्रैराशिक' कहते हैं। गोशालक का मत ' त्रैराशिक' कहलाता है उनकी मान्यता है कि अनादिकाल से कर्मों से मलिन (अशुद्ध) बना हुआ आत्मा मनुष्य भव में शुद्धाचरण करके शुद्ध बन जाता है और मोक्ष में चला जाता है। किन्तु फिर
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