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. अध्ययन १ उद्देशक ३
४१ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
अपने मत का अपमान और अन्य मत का सन्मान देख कर उसे राग द्वेष पैदा होता है इसीलिए संसार में फिर अवतार (जन्म) ले लेता है। इस प्रकार आत्मा की तीन अवस्था बनती है। यथा - १. अशुद्ध २. शुद्ध ३. अशुद्ध (संसारी सकर्म अवस्था)।
इह संवुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबु जहा भुज्जो, णीरयं सरयं तहा ॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - संवुडे - संवृत-यम नियम में रत, वियडम्बु - विकटाम्बु-शुद्ध जल, भुजो - भूय - फिर, णीरयं - निरज-निर्मल, सरयं - सरज-मलिन ।
- भावार्थ - जो जीव मनुष्य भव को पाकर यम नियम में तत्पर रहता हुआ मुनि होता है वह पीछे पाप रहित हो जाता है । फिर जैसे निर्मल जल मलिन होता है । उसी तरह वह भी मलिन हो जाता है ।
विवेचन - मोक्ष में गया हुआ जीव फिर संसार में आ जाता है यह उपरोक्त मान्यता मिथ्या है क्यों कि
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवतिनाङ्करः । कर्म बीजे तथा दग्धे, नारोहति भवाङ्करः ॥
अर्थ - जैसे गेहूं, जौ, चना आदि का बीज जल गया हो तो फिर उसका अङ्कर नहीं निकलता है अर्थात् वह जला हुआ बीज नहीं ऊगता है। इसी प्रकार जिस जीव का कर्म रूपी बीज सर्वथा जल गया है अर्थात् मोक्ष में चला गया है। उसका संसार में पुनरागमन रूप अङ्कर पुनः उत्पन्न नहीं हो सकता है अर्थात् वह फिर से जन्म नहीं लेता है। यह मान्यता शुद्ध है।
एयाणुवीइ मेहावी, बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावाउया सव्वे, अक्खायारो सयं सयं ॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - मेहावी - मेधावी-बुद्धिमान् पुरुष, बंभचेरे - ब्रह्मचर्य में, वसे - स्थित है, पावाउया - प्रावादुक-वादी, अक्खायारो - आख्याता-कथन करने वाले।
भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, इन अन्यतीर्थियों का विचार कर यह निश्चय करे कि ये लोग ब्रह्मचर्य अर्थात् अहिंसा आदि महाव्रतों का पालन नहीं करते हैं तथा ये सभी प्रावादुक, अपने अपने सिद्धान्त को अच्छा बतलाते हैं । . विवेचन - अपने सिद्धान्त को अच्छा बतलाने मात्र से कोई भी सिद्धान्त अच्छा नहीं हो जाता । जैसा कि कहा है -
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