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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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पुढवी आऊ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ ।
चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु आवरे ॥ १८॥
कठिन शब्दार्थ - धाउणो धातु के, रूवं रूप, एवं इस प्रकार, आहंसु - कहा है, आवरे
( जाणगा ) - दूसरों ने ।
भावार्थ- पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार, धातु के रूप हैं । ये जब शरीर रूप में परिणत होकर एकाकार हो जाते हैं तब इनकी जीव संज्ञा होती है (चातुर्धातुकमिदं शरीरम् ) । यह दूसरे बौद्ध कहते हैं ।
विवेचन- १५वीं १६वीं गाथा में सत्वाद का, १७वीं गाथा में स्कन्धवादी बौद्ध और १८वीं गाथा में धातु वादी बौद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । १४वीं गाथा से ही इनकी अपूर्णता जानी जा सकती है ।
कुछ बौद्धों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चारों पदार्थ जगत् को धारण और पोषण करते हैं; इसलिये धातु कहलाते हैं । ये चारों धातु जब एकाकार होकर शरीर रूप में परिणत होते हैं तब इनकी जीव संज्ञा होती है । अर्थात् यह शरीर चार धातुओं से बना है अतः इन चार धातुओं से भिन्न कोई आत्मा नहीं है । किन्तु उनकी यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । यह आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, परलोक में जाने वाला है अतः भूतों से भिन्न है तथा शरीर के साथ मिल कर रहने के कारण कथंचित् शरीर से अभिन्न भी है । यह आत्मा नैरयिक तिर्यञ्च मनुष्य और देवगति के कारण रूप कर्मों के द्वारा भिन्न भिन्न रूपों में बदलता रहता है इसलिये यह सहेतुक व अनित्य भी है । आत्मा के निज स्वभाव का कभी नाश नहीं होता । इसलिये यह निर्हेतुक एवं नित्य भी है । इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध हो जाने पर भी उसे चार धातुओं से बना हुआ शरीर मात्र बताना अयुक्त है ।
अगारमावसंता वि, आरण्णा वा वि पव्वया ।
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इमं दरिसणमावण्णा, सव्व दुक्खा विमुच्चइ ॥ १९ ॥
कठिन शब्दार्थ - अगारं घर में, आवसंता - निवास करने वाले, आरण्णा (अरण्णा ) अरण्य - वन में निवास करने वाले, पव्वया प्रव्रजित, दरिसणं- दर्शन को, आवण्णा प्राप्त हुए, सव्वदुक्खा - सब दुःखों से, विमुच्चइ - मुक्त हो जाते हैं ।
भावार्थ - घर में निवास करने वाले गृहस्थ तथा वन में रहने वाले तापस एवं प्रव्रज्या धारण किए हुए मुनि जो कोई इस मेरे दर्शन को प्राप्त करते हैं वे सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं, ऐसा वे अन्यदर्शनी कहते हैं ।
विवेचन - भूतवादी और देहात्मवादी के मत से भोगों से वंचित रहना ही दुःख है; अतः साधना
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