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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ १५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . भावार्थ - पृथिवी आदि पाँच महाभूत तथा छठा आत्मा, सहेतुक-कारण वश या निर्हेतुक-बिना कारण दोनों ही प्रकार से नष्ट नहीं होते हैं तथा असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है । सभी पदार्थ सर्वथा नित्य हैं । विवेचन - (अ) निर्हेतुक विनाश-बिना कारण से नष्ट होना, सहेतुक विनाश-लट्ठी आदि कारण से नष्ट होना । __ (आ) 'सभी पदार्थ सब प्रकार से निश्चित भाव वाले हैं' अर्थात् सभी भाव पदार्थ में पहले से ही विद्यमान हैं-नये पैदा नहीं होते और जिसमें जो भाव पूरी तरह से गर्भित होते हैं-वही भाव प्रकट होते हैं-दूसरे नहीं । जैसे स्याही में वर्ण-चित्रों का पूर्ण रूप से सद्भाव है, तभी स्याही से उनका निर्माण होता है । यदि वर्णादि भाव स्याही में पूर्णतः विद्यमान नहीं होते तो उससे सजीव आदमी भी बन जाते । परन्तु स्याही में आदमियत-आदमीपणा-(मनुष्यपणा) रूप से विद्यमान ही नहीं हैं । पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो णेवाहु हेउयं च अहेउयं ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ - खंधे - स्कन्ध, वयंति - बताते हैं, खणजोइणो - क्षण मात्र रहने वाले, अण्णो - अन्य-भिन्न, अणण्णो - अनन्य-अभिन्न, ण - नहीं, एव - ही, आहु - कहते हैं, हेउयं - हेतुक-कारण से, अहेउयं - अहेतुक-बिना कारण से। भावार्थ - कोई अज्ञानी क्षणमात्र स्थित रहने वाले पांच स्कन्धों को बतलाते हैं : भूतों से भिन्न अथवा अभिन्न, कारण से उत्पन्न अथवा बिना कारण उत्पन्न आत्मा, वे नहीं मानते हैं । विवेचन - पांच स्कन्ध इस प्रकार माने जाते हैं - १. रूप स्कन्ध = पृथ्वी, धातु, रूप आदि । २. वेदना स्कन्ध - दुःख, सुख और अदुःख-असुख का अनुभव । ३. विज्ञान स्कन्ध = रूप रसादि का ज्ञान । ४. संज्ञा स्कन्ध = वस्तुओं के नाम ।। ५. संस्कार स्कन्ध = पाप-पुण्य आदि । बौद्ध (बौद्धों का एक भेद) उपरोक्त रूप आदि पांच स्कन्धों को ही आत्मा मानते हैं । इनसे भिन्न आत्मा नाम का कोई स्कन्ध नहीं है । यह क्षण-क्षयी है अर्थात् पदार्थ क्षण मात्र स्थित रहते हैं । जैसे सांख्यवादी पांच भूतों से आत्मा को भिन्न मानते हैं तथा चार्वाक आत्मा को पांच भूतों से अभिन्न मानता है उस तरह से ये बुद्ध नहीं मानते हैं । एवं आत्मा को नित्य भी नहीं मानते हैं। आत्मा एवं पदार्थ अपने स्वभाव से ही अनित्य उत्पन्न होते हैं । अतः वे सब क्षणिक हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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