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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - जुवइ - युवती, समणं - साधु को, बूया - कहे, विचित्तलंकार वत्थगाणिविचित्र अलंकार और वस्त्र, परिहित्ता - पहन कर, विरता - विरत होकर, रुक्खं - रूक्ष-संयम का, चरिस्सहं - पालन करूंगी, धम्मं - धर्म को आइक्ख - कहा, भयंतारो - भय से बचाने वाले । . .
भावार्थ - कोई युवती स्त्री विचित्र अलङ्कार और भूषण पहनकर साधु से कहती है कि हे भय से बचाने वाले साधो ! मैं विरत होकर संयम पालन करूँगी इसलिये आप मुझ को धर्म सुनाइये ।
अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं। जतकंभे जहा उवज्जोई, संवासे विद विसीएज्जा ॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - साविया - श्राविका, पवाएणं - बहाने से, साहम्मिणी - साधर्मिणी, समणाणंश्रमणों की, जतुकुंभे - लाख का घड़ा, उवज्जोई , अग्नि के निकट संवासे - संवास-समीप, विदूं - विद्वान्, विसीएज्जा - विषाद को प्राप्त होता है ।
__ भावार्थ - स्त्री श्राविका होने का बहाना बनाकर तथा मैं साधु की साधर्मिणी हूँ यह कहकर साधु के निकट आती है । जैसे आग के पास लाख का घड़ा गल जाता है इसी तरह स्त्री के साथ रहने से विद्वान् पुरुष भी शीतलविहारी हो जाते हैं ।
जतुकुंभे जोइ उवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ २७॥
कठिन शब्दार्थ - आसु - शीघ्र, अभितत्ते - तपा हुआ, णासमुवयाइ - नाश को प्राप्त होता है, संवासेण - स्त्रियों के संसर्ग से, णासं - नाश को, उवयंति - प्राप्त हो जाते हैं । ..
भावार्थ - जैसे अग्नि के द्वारा आलिङ्गन किया हुआ लाख का घडा चारों तरफ से तप्त होकर शीघ्र ही गल जाता है इसी तरह अनगार पुरुष स्त्रियों के संसर्ग से शीघ्र ही ब्रह्मचर्य से पतित हो जाते हैं।
कुव्वंति पावगं कम्मं, पुट्ठा वेगेव-माहिंसु । णोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणी ममेस त्ति ॥२८॥
कठिन शब्दार्थ-पुट्ठा - पूछने पर, एवं - इस तरह, आहिंसु- कहते हैं, अंकेसाइणी - अंकशायिनी - गोद में सोने वाली ।
भावार्थ - कोई भ्रष्टाचारी साधु पापकर्म करते हैं परन्तु आचार्य के पूछने पर कहते हैं कि - मैं . पाप कर्म नहीं करता हूँ किन्तु यह स्त्री बालावस्था में मेरे अङ्क में सोई हुई है ।
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