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अध्ययन १ उद्देशक २
३५. 0000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००
इच्चेयाहिं य दिट्ठीहिं, सायागारव णिस्सिया । सरणंति मण्णमाणा, सेवंति पावगं जणा ॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - सायागारवणिस्सिया - सातागारव - नि:श्रितासुख भोग तथा मान बड़ाई में आसक्त, सरणं- शरण रूप, मण्णमाणा - मानते हुएं, सेवंति - सेवन करते हैं ।
भावार्थ - पूर्वोक्त अन्यदर्शनी पूर्वोक्त इन दर्शनों के कारण सुख भोग तथा मान बड़ाई में आसक्त रहते हैं । वे अपने दर्शन को अपना रक्षक समझते हुए पापकर्म का सेवन करते हैं ।
विवेचन-- उपरोक्त क्रियावादियों का मन्तव्य है कि - चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है। इस मान्यता के कारण वे अपनी इच्छानुसार पाप कार्य में प्रवृत्त होते रहते हैं। पाप कार्य से मुक्ति की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती है। पाप के त्याग से मुक्ति होती. है।
जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । - इच्छइ पारमागंतुं, अंतरा य विसीयइ ॥३१॥
कठिन शब्दार्थ - अस्साविणिं - आस्राविणी-जिसमें जल प्रवेश करता है, (छिद्रों वाली) जाइअंधो - जन्मान्ध, दुरूहिया - चढ़ कर, पारं - पार, आगंतुं - आने के लिये अंतरा य - मार्ग में ही, विसीयई- खेदित होता है अर्थात् डूब जाता है । .
भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष, जिसमें जल प्रवेश करता है ऐसी छिद्रों वाली नौका पर चढ़ कर पार पहुंच जाना चाहता है परन्तु वह बीच जल में ही डूब कर मर जाता है ।
एवं तु समणा एगे, मिच्छ-दिट्ठी अणारिया । संसार-पार-कंखी ते, संसारं अणुपरियटृति ॥ ३२ ॥ त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - संसार पारकंखी - संसार से पार जाने का इच्छुक, संसारं - संसार में ही, अणुपरियटृति - पर्यटन-भ्रमण करते हैं ।
भावार्थ - इस प्रकार कोई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार से पार जाना चाहते हैं परन्तु वे संसार में ही भ्रमण करते हैं ।
विवेचन - छिद्रों वाली नाव का दृष्टान्त देकर शास्त्रकार यह फरमाते हैं कि - उपरोक्त अन्य मतावलम्बी पाप कार्य करते हुए भी अपने आप को उस पाप कार्य से लिप्त नहीं मानते हैं और चाहते हैं कि हम संसार सागर से पार होकर मुक्ति प्राप्त कर लें किन्तु ऐसा कभी नहीं होता है क्योंकि पाप कार्य को छोड़ने से ही मुक्ति प्राप्त होती है।
॥ इति दूसरा उद्देशक ॥
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