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वेराइं कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहि रज्जइ ।
पावोवंगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥ ७ ॥
कठिन शब्दार्थ - वेराइं वैर, वेरी वैरी, रज्जइ अनुरक्त हो जाता है, पाओवगा पाप उत्पन्न
करती है, दुक्खफासा - दुःख स्पर्श-दुःख देती है ।
भावार्थ - जीव हिंसा करने वाला पुरुष उस जीव के साथ अनेक जन्म के लिये वैर बांधता है क्योंकि दूसरे जन्म में वह जीव इसे मारता है और तीसरे जन्म में यह उसे मारता है इस प्रकार इनकी परस्पर वैर की परम्परा चलती रहती है तथा जीव हिंसा पाप उत्पन्न करती है और इसका विपाक दुःख भोग होता है ।
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अध्ययन ८
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संपरायं नियच्छंति, अत्त- दुक्कड - कारिणो ।
राग - दोस स्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहुं ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - संपरायं साम्परायिक कर्म, णियच्छंति- बांधते हैं, अत्तदुक्कडकारिणो - स्वयं पाप करने वाले, रागदोस स्सिया - राग द्वेष के आश्रय से ।
भावार्थ- स्वयं पाप करने वाले जीव, साम्परायिक कर्म बाँधते हैं तथा रागद्वेष के स्थानभूत वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं ।
विवेचन कर्म को क्रिया कहते हैं। उस क्रिया के दो भेद हैं- ईर्यापथिकी और साम्परायिकी । कषाय को सम्पराय कहते हैं। दसवें गुणस्थान तक कषाय रहता है इसलिये दसवें गुणस्थान तक जीवों को साम्परायिकी क्रिया लगती है। कषाय से मलिन आत्मा वाले पुरुष रागद्वेष के आश्रय भूत होने से तथा सत् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण वे बालक समान अज्ञानी है। उनका पुरुषार्थ बालवीर्य कहा जाता है।
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. एयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेइयं ।
इतो अकम्मवीरियं, पंडियाणं सुणेह मे ।। ९॥
कठिन शब्दार्थ - सकम्मवीरियं - सकर्मवीर्य को, बालाणं- बालकों का अज्ञानियों का, अकम्मवीरियं - अकर्मवीर्य को, पंडियाणं पंडित पुरुषों का ।
भावार्थ - यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य्य कहा गया है अब यहां से पण्डितों का अकर्मवीर्य्य कहा जायेगा वह मुझसे सुनो ।
विवेचन - यह जो पहले कहा गया कि- प्राणियों का घात करने के लिये कोई शस्त्र और कोई शास्त्र (पापसूत्र) सीखते हैं तथा प्राणियों को पीड़ा देने वाली विद्या और मन्त्रों को सीखते हैं । एवं कितनेक कपटी नाना प्रकार का कपट करके काम भोग के लिये आरम्भ करते हैं तथा कितनेक ऐसा
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