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________________ २१२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कर्म करते हैं कि जिससे बैर की परम्परा बढ़ती चली जाती है जैसे कि - जमदग्नि ने अपनी स्त्री के साथ अनुचित व्यवहार करने के कारण कृतवीर्य को जान से मार डाला था। इस बैर का बदला लेने के लिये कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य ने जमदग्नि को मार डाला फिर जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने सारी पृथ्वी को सात बार क्षत्रिय रहित कर दिया। फिर कार्तवीर्य के पुत्र सुभूम ने सारी पृथ्वी को इक्कीस बार ब्राह्मणों से रहित कर दिया। इस प्रकार कषाय के वशीभूत पुरुष ऐसा कार्य करते हैं। इससे बेटे पोते और पड़पोते आदि तक बैर की परम्परा चलती रहती है। इस प्रकार प्रमादी और अज्ञानी पुरुषों का वीर्य कहा गया है। अब यहाँ से आगे पण्डित वीर्य का कथन किया जाता है। उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। दव्विए बंधणुम्मुक्के, सव्वओ छिण्ण बंधणे । पणोल पावगं कम्मं, सलं कंतइ अंतसो ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - बंधणुम्मुक्के - बंधन से मुक्त, छिण्ण - नष्ट किया हुआ, पणोल्ल - छोड़ कर, सल्लं - शल्य को, कंतइ - काट देता है । भावार्थ - मुक्ति जाने योग्य पुरुष सब प्रकार के बन्धनों को काटकर एवं पाप कर्म को दूर करके आठ प्रकार के कर्मों को काट डालता है । .. विवेचन - गाथा में 'दविए' शब्द दिया है जिसका अर्थ है द्रव्य और द्रव्य का अर्थ है भव्य (द्रव्य शब्द का प्रयोग भव्य अर्थ में होता है) मुक्ति जाने के योग्य पुरुष को भव्य कहते हैं। अथवा रागद्वेष रहित होने के कारण जो पुरुष द्रव्यभूत अर्थात् कषाय रहित है वह द्रव्य कहलाता है वह पुरुष कषाय रूप बन्धन से छूटा हुआ है क्योंकि कषाय होने पर ही कर्म का स्थितिकाल बन्धता है जैसा कि बतलाया गया है "बंधट्टिई कसायवसा" अर्थात् बन्धन की स्थिति कषाय के वश होती है। इसलिये कषाय रहित पुरुष बन्धन से छूटे हुए पुरुष के समान होने के कारण बन्धन मुक्त एवं छिन्नबन्धन है यहाँ पर "सल्लं कंतइ अप्पणो" ऐसा पाठान्तर भी मिलता है इसका अर्थ है कांटे की तरह अपनी आत्मा के साथ लगे हुए आठ कर्मों को वह पुरुष काट देता है। णेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुज्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥ . कठिन शब्दार्थ - णेयाउयं - नैयायिक-नेता मोक्ष की ओर ले जाने वाला, उवादाय - ग्रहण कर, समीहए - समीहते-मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करता है, दुहावासं - दुःखावास, असुहत्तं - अशुभ ।। भावार्थ - सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्ष को प्राप्त कराने वाले हैं यह तीर्थंकरों ने कहा है । इसलिये बुद्धिमान् पुरुष इन्हें ग्रहण कर मोक्ष की चेष्टा करते हैं । बाल वीर्य्य, जीव को बार बार दुःख देता है और ज्यों ज्यों बालवीर्य्य वाला जीव दुःख भोगता है त्यों त्यों उसका अशुभ विचार बढ़ता जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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