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________________ अध्ययन८ २१३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - जो अच्छे रास्ते से ले जाता है उसको नेता या नायक कहते हैं । सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग है अथवा श्रुत और चारित्र रूप धर्म मोक्ष का मार्ग है । इसलिये इसको मोक्ष मार्ग का नेता कहा है। अतः बुद्धिमान् पुरुष उसे ग्रहण करके धर्म ध्यान आदि में प्रयत्न करते हैं। बालवीर्य वाला जीव नरक आदि दुर्गतियों में भटकता फिरता है और उसका अध्यवसाय अशुभ होने से अशुभ कर्म ही बन्धता है। इसीलिये शास्त्रकार ने इसको दुःखावास कहा है। दुःखावास के कारणभूत बालवीर्य को छोड़कर सुखावास के कारणभूत पण्डितवीर्य में पुरुषार्थ करना चाहिए। ठाणी विविह-ठाणाणि, चइस्संति ण संसओ । अणियए अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ।।१२॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणी - स्थानी, विविह ठाणाणि - विविध स्थानों को, चइस्संति - छोडेंगे, संसओ - संशय, अणियए - अनित्य, वासे - वास, णायएहि - ज्ञातिजनों के साथ, सुहीहि - मित्रों के साथ । भावार्थ - स्थानों के अधिपति लोग एक दिन अवश्य अपने स्थानों को छोड़ देंगे तथा ज्ञाति और मित्रों के साथ संवास को भी छोड़ देंगे क्योंकि यह भी अनित्य है । - विवेचन - संसार में उत्तम, मध्यम और निकृष्ट ये तीन प्रकार के स्थान हैं। देवलोक में इन्द्र, सामानिक तथा मनुष्य लोक में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के स्थान उत्तम एवं उच्च पद वाले हैं। मध्य पद में माण्डलिक राजा, सेठ, सार्थवाह आदि हैं। इनके अतिरिक्त सब निकृष्ट स्थान हैं। इन सब के अधिपति एक दिन अपने स्थान को अवश्य छोड़ देते हैं। एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । आरियं उवसंपज्जे, सव्व-धम्म-मकोवियं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - गिद्धिं - गृद्धि (आसक्ति) को, उद्धरे- छोड़ दे, आरियं - आर्य धर्म को, उवसंपजे - ग्रहण करे, सव्वधम्म- सब धर्मों को, अकोवियं- अकोपित-अदूषित। भावार्थ - सभी उच्चपद अनित्य हैं यह जान कर विवेकी पुरुष अपनी ममता को उखाड़ देवे तथा सब कुतीर्थिक धर्मों से अदूषित इस आर्य धर्म को (श्रुत और चारित्र को) ग्रहण करे । विवेचन - मेधावी अर्थात् भले बुरे का विवेक रखने वाला एवं मर्यादा में रहने वाला पुरुष ऐसा विचार करे कि संसार के सभी पदार्थ अनित्य है। ऐसा विचार कर ममता का त्याग कर दे तथा "यह वस्तु मेरी है और मैं उसका स्वामी हूँ" इस प्रकार के अहंकार को भी त्याग दे । जो सभी पापों से रहित है उसे आर्य धर्म कहते हैं अथवा तीर्थङ्कर आदि आर्य पुरुषों द्वारा प्ररूपित धर्म को आर्यधर्म कहते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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