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________________ ८८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर्तव्य है कि वे अपना कल्याण साध लें। भगवान् के ९८ पुत्रों ने यह उपदेश सुन कर संयम अङ्गीकार कर ऐसा पुरुषार्थ किया कि - उसी भव में भगवान् के साथ ही मोक्ष चले गये। . अभविंसु पुरावि भिक्खवो (भिक्खुवो), आएसावि भवंति सुव्वया। एयाइं गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - पुरा - पूर्व काल में, वि - भी, अभविंसु- हो चुके, आएसा - भविष्यकाल में, सुब्धया - सुव्रत पुरुषों ने, गुणाई - गुणों को, अणुधम्मचारिणो - अनुयायियों ने । भावार्थ - जो तीर्थंकर पहले हो चुके हैं और जो भविष्यकाल में होंगे उन सभी सुव्रत पुरुषों ने तथा भगवान् ऋषभदेव स्वामी और भगवान् महावीर स्वामी के अनुयायियों ने भी इन्हीं गुणों को मोक्ष का साधन बताया है। विवेचन - "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः" . . अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्ष मार्ग है। इसकी आराधना करके भूतकाल में अनन्त सर्वज्ञ हो चुके हैं। सर्वज्ञ पुरुषों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं होता है। उन सब का उपरोक्त एक ही सिद्धान्त था। इसी का आचरण कर वे सर्वज्ञ बने थे। भगवान् ऋषभदेव और महावीर स्वामी इन दोनों का एक ही गोत्र 'काश्यप' था अर्थात् ये दोनों 'काश्यप' गोत्रीय थे। तिविहेण वि पाण (पाणि) मा हणे, आयहिए अणियाण संवुडे। • एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे ॥२१॥ . __ कठिन शब्दार्थ - आयहिए - आत्महित-स्व हित में प्रवृत्त, अणियाण - अनिदान-स्वर्गादि की इच्छा से रहित, अणंतसो - अनंत जीव, सिद्धा - सिद्ध हुए हैं, संपइ - सम्प्रति- वर्तमान काल अणागया - अनागत-भविष्य में, अवरे - अपर-दूसरे । भावार्थ - मन, वचन और काय से प्राणियों की हिंसा न करनी चाहिए । अपने हित में प्रवृत्त और स्वर्गादि की इच्छा से रहित संयम पालन करना चाहिए । इस प्रकार अनन्त जीवों ने मोक्ष लाभ किया है तथा वर्तमान समय में करते हैं और भविष्य में भी करेंगे । । विवेचन - गाथा में सिर्फ प्राणातिपात विरमण रूप पहले महाव्रत का ही कथन है यह तो उपलक्षण है इसलिये शेष चार महाव्रतों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिये। अर्थात् प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापों का तीन करण तीन योग से त्याग कर देना चाहिये। इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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