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________________ अध्ययन २ उद्देशक ३ ८९ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पांच महाव्रतों का पालन कर भूत काल में अनंत सिद्ध हो चुके हैं वर्तमान में संख्यात सिद्ध हो रहे हैं और भविष्य में अनन्त सिद्ध होंगे। इससे भिन्न कोई दूसरा सिद्धि का मार्ग नहीं है। - एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दंसणधरे । अरहा णायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ।त्ति बेमि॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - अणुत्तरणाणी - अनुत्तरज्ञानी, अणुत्तरदंसी - अनुत्तरदर्शी, अणुत्तरणाणदंसणधरे - अनुत्तर ज्ञान दर्शन के धारक, वेसालिए - वैशालिक-विशाला नगरी में उत्पन्न, विशाल तीर्थ के नायक, वियाहिए - व्याख्यातवान् - अर्थात् कहा है, त्ति बेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ। भावार्थ - उत्तमज्ञानी उत्तमदर्शनी तथा उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारक, इन्द्रादि देवों के पूजनीय ज्ञातपुत्र भगवान् श्री वर्धमान स्वामी ने विशाला नगरी में यह हम लोगों से कहा था अथवा ऋषभदेव स्वामी ने अपने पुत्रों से यह कहा था सो मैं आपसे कहता हूँ । यह श्री सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं । . विवेचन - उपरोक्त गाथा में भगवान् महावीर के सात विशेषण दिये गये हैं। यथा १. अनुत्तर ज्ञानी - जिनसे बढ़कर कोई ज्ञानी नहीं है २. अनुत्तरदर्शी - जिनसे बढ़कर कोई तत्त्ववेत्ता नहीं है। ३. अनुत्तर ज्ञानदर्शनधर - अनुत्तर अर्थात् जिससे बढ़कर कोई ज्ञान और दर्शन नहीं ऐसे ज्ञान दर्शन दोनों को एक साथ धारण करने वाले। ४. अरहा - जिनसे कोई रहस्य छिपा हुआ नहीं है । ५. णायपुत्ते - ज्ञातृ कुल में उत्पन्न होने से ज्ञातकुल। ६. भगवं - भगवान्-ऐश्वर्य आदि छह गुणों से युक्त।.७. वेसालिए - वैशालिक अथवा वैशाल्याम् अर्थात् विशाल कुल में उत्पन्न होने से वैशालिक भगवान् ऋषभदेव अथवा महावीर अथवा वैशाली या विशाला नगरी में दिया गया भगवान् का प्रवचन। उपर्युक्त अर्थ का समर्थन करने वाली एक गाथा वृत्तिकार ने दी है वह इस प्रकार है इति कम्मवियालमुत्तमं जिणवरेण सुदेसियं सया । जे आचरंति आहियं खवितरया वइहिंति ते सिवं गतिं ॥ अर्थात - इसी प्रकार कर्म विदारक नामक उत्तम अध्ययन का उपदेश श्री जिनवर देव ने फरमाया है। इसमें कथित उपदेश के अनुसार जो जीव आचरण करते हैं वे अपने कर्म-रज को क्षय करके मोक्ष गति प्राप्त करते हैं । . .. प्रश्न - भगवान् किसे कहते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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