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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ ........... प्रकार चतुर जुआरी विजय प्राप्ति के साधन रूप चतुर्थ (कृत ) . स्थान को ही ग्रहण करके खेलता है । एक, दो, तीन आदि को ग्रहण नहीं करता इसी प्रकार मोक्षार्थी साधु गृहस्थ धर्म, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ आदि धर्म को छोड़ कर सर्वोत्तम सर्व महान् सर्वज्ञ कथित धर्म को ही स्वीकार करे । उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा इह मे अणुस्सुयं । जंसि विरया समुट्ठिया, कासवस्स अणुधम्म चारिणो ॥ २५ ॥ कठिन शब्दार्थ - उत्तर - प्रधान-दुर्जय, गामधम्मा- ग्रामधर्म-शब्दादि विषय या मैथुन सेवन, अणुस्सुयं सुना है, जंसि उनसे, विरया - निवृत्त, अणुधम्म चारिणो- अनुयायी, कासवस्सकाश्यप गोत्री भगवान् के । 66 भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि शिष्य वर्ग को फरमाते हैं कि 'शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन मनुष्यों के लिए दुर्जेय कहा है" यह मैंने सुना है । उन शब्दादि विषयों और मैथुन सेवन को छोड़ कर जो संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं वे ही काश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी अथवा ऋषभदेव स्वामी के अनुयायी हैं । . जे एयं चरंति आहियं, णाएण महया महेसिणा । ते उट्ठिया ते समुट्ठिया, अण्णोण्णं सारंति धम्मओ ॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - चरंति - आचरण करते हैं, णाएण - ज्ञातपुत्र के द्वारा उट्टिया - उत्थित, समुट्ठिया समुत्थित, अण्णोण्णं- एक दूसरे को, सारंति प्रवृत्त करते हैं, धम्मओ धर्म में । - - भावार्थ - महान् महर्षि ज्ञात पुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए धर्म को जो - पुरुष आचरण करते हैं वे ही उत्थित धर्म मार्ग में प्रवृत्त तथा सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त समुत्थित हैं तथा वे धर्म से भ्रष्ट होते हुए प्राणियों को फिर धर्म में प्रवृत्त करते हैं । विवेचन - जो स्वयं धर्म में दृढ़ता पूर्वक स्थिर हैं वे ही धर्म से डिगते हुए में स्थिर कर सकते हैं । - Jain Education International .७५ - मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवहिं धूणित्तए । जे दूमण तेहि णो पाया, ते जाणंति समाहि माहियं ॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - मा मत, पेह - स्मरण करो, पणामए - प्रनामक शब्दादि विषयों को, उवहिं - उपधि - कर्मों को, धूणित्तए नाश करने की, दूमण मन को दुष्ट बनाने वाले, गया- नत - - For Personal & Private Use Only प्राणियों को पुनः धर्म आसक्त । भावार्थ पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों को स्मरण नहीं करना चाहिए । माया अथवा आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने की इच्छा करनी चाहिए । जो पुरुष, मन को दूषित करने वाले www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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