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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं हैं वे अपने आत्मा में स्थित धर्मध्यान तथा रागद्वेष के त्याग रूप धर्म को जानते हैं ।
णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए। णच्चा धम्मं अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए ॥२८॥
कठिन शब्दार्थ - काहिए - कथा करने वाला, पासणिए - प्राश्निक-प्रश्न का फल बताने वाला, संपसारए - संप्रसारक-वृष्टि एवं धनोपार्जन के उपाय बताने वाला, कयकिरिए - कृत क्रिया - संयमरूप क्रिया करने वाला, मामए - ममता करने वाला।
भावार्थ - संयमी पुरुष, विरुद्ध कथा वार्ता नं करे तथा प्रश्नफल और वृष्टि तथा धनवृद्धि के उपायों को भी न बतावे । किन्तु लोकोत्तर धर्म को जानकर संयम का अनुष्ठान करे और किसी वस्तु पर ममता न करे ।
छण्णं च पसंसं णो करे, ण य उक्कोस पगास माहणे। तेसिं सुविवेग माहिए, पणया जेहिं सुजोसियं धुयं ॥२९॥
कठिन शब्दार्थ - छण्णं - छण्ण-माया, पसंसं - प्रशस्य-लोभ, उक्कोस - उत्कर्ष-मान, पगास - प्रकाश-क्रोध, सुविवेगं - उत्तम विवेक, आहिए - कहा है, सुजोसियं - अच्छी तरह सेवन किया है, पणया - प्रणत-धर्म में तल्लीन, धुयं - धूत-कर्मों का नाश करने वाला। ___भावार्थ - साधु पुरुष, क्रोध मान माया और लोभ न करे । जिनने आठ प्रकार के कर्मों को नाश करने वाले संयम का सेवन किया है उन्हीं का उत्तम विवेक जगत् में प्रसिद्ध हुआ है और वे ही धर्म में तल्लीन पुरुष हैं ।
विवेचन - 'छण्ण' शब्द का अर्थ है छिपाना । मायावी पुरुष अपने अभिप्राय को छिपाता है इसलिये यहां माया को 'छण्ण' कहा गया है। 'लोभ' सर्व व्यापक है । लोग उसको आदर देते हैं और प्रशंसा करते हैं । इसलिये यहां पर 'लोभ' को प्रशस्य कहा है। जाति कुल आदि से अपने आपको ऊंचा बताना 'उत्कर्ष' कहलाता है । उत्कर्ष का अर्थ है - 'मान' यहां पर क्रोध को प्रकाश कहा गया है इसका कारण यह है मनुष्य के अन्दर रह कर भी मुख, दृष्टि, भृकुटी भंग आदि विकारों से प्रकट हो जाता है। जिन महापुरुषों ने इन क्रोध मात्र माया, लोभ लए चार कपाय का त्याग कर दिया है उनका जीवन धन्य है । वे धर्म में प्रवृत्त हैं।
अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज समाहिइंदिए, अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - अणिहे - अस्निह-किसी वस्तु में स्नेह न करना, सहिए - सहित-हित सहित
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