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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
करते हुए समस्त दुःखों का नाश कर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यह कथन वीतराग भगवन्तों का नहीं है। देव चौथे गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकते हैं।
आगमकार फरमाते हैं कि - "दुल्लहे खलु माणुसे भवे"
अर्थात् चार गति चौबीस दण्डक और चौरासी लाख जीव योनि में भटकते हुए इस जीव को मनुष्य भव की प्राप्ति होना महान् कठिन है। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन की टीका में तथा आवश्यक नियुक्ति में दस दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि इन दस दृष्टान्तों का मेल होना कठिन है उसी तरह मनुष्य भव की प्राप्ति होना महान् कठिन है। अतः मनुष्य भव को प्राप्त कर बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे निरंतर धर्म में पुरुषार्थ करें।
इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुलहा । दुलहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - विद्धंसमाणस्स - मनुष्य शरीर से च्युत (भ्रष्ट) को, संबोहि - संबोधि, दुल्लहाओ - दुर्लभ, तहच्याओ - सम्यग् दर्शन प्राप्ति योग्य अंतःकरण, धम्म8 - धर्म की, वियागरेव्याख्या करते हैं। . भावार्थ - जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है उस को फिर बोध प्राप्त होना दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य अन्तःकरण का परिणाम होना बड़ा कठिन है । जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं तथा धर्म की प्राप्ति के योग्य हैं उनकी लेश्या प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । . विवेचन - जिस जीव ने मनुष्य भव प्राप्त करके धर्म करणी नहीं की उस पुरुष का दूसरे भव में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य सामग्री का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य भव प्राप्त करके भी दस बोलों की प्राप्ति होना महान् कठिन है- १. मनुष्य भव २. आर्यक्षेत्र ३. उत्तम कुल ४. नीरोग शरीर ५. पांच इन्द्रिय परिपूर्ण ६. लम्बा आयुष्य ७. साधु साध्वी का संयोग ८. जिनवाणी श्रवण ९. श्रद्धा १०. संयम (धर्म में पुरुषार्थ) । ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि -
चेतन चेतो रे, चेतन चेतो रे दस बोल जीव ने मुश्किल मिलिया रे - चेतन चेतोरे, चेतन चेतो रे ।।टेर ।। जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुण्ण-मणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ॥ १९ ॥
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