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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शास्त्रकार यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जम्बूस्वामी की वाणी सुन कर मुमुक्षु आत्माओं ने उनसे ऐसे प्रश्न किये होंगे। तभी उन्होंने श्री सुधर्मा स्वामी के समक्ष ये जिज्ञासाएं प्रस्तुत की है। - "साहु समिक्खयाए" का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है - साधु अर्थात् सुन्दर रूप से समीक्षा करके अर्थात् पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का निश्चय करके अथवा समभाव पूर्वक दृष्टि से। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - केवल ज्ञान के प्रकाश में सम्यग् रूप से जानकर और देखकर।
ज्ञान - विशेष अर्थ का प्रकाशित करने वाला बोध।
दर्शन - सामान्य रूप से अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध अथवा समस्त पदार्थों को देखने या . उनकी यथार्थ वस्तु स्थिति पर विचार करने की दृष्टि (दर्शन या सिद्धान्त)।
शील (चारित्र) - यम-महाव्रत। नियम समिति गुप्ति आदि के पोषक नियम, त्याग तप आदि रूप शील आचार। ___ज्ञात सुत - ज्ञातपुत्र-सिद्धार्थ राजा का कुल ज्ञातकुल कहलाता या इसलिये भगवान् महावीर को ज्ञातपुत्र कहा है।
खेयण्णए से कसले महेसी, अणंतणाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च थिइंच पेहि ॥ ३ ॥ .
कठिन शब्दार्थ - खेयण्णए - खेदज्ञ, कुसले - कुशल, महेसी - महर्षि, अणंतणाणी - अनन्तज्ञानी, अणंतदंसी - अनन्तदर्शी, जसंसिणो - यशस्वी, चक्खुपहे ठियस्स - चक्षु (आलोक) पथ में स्थित, जाणाहि - जानो, भिई- धृति (धीरता) को, पेहि - देखो।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी, जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि - भगवान् महावीर स्वामी संसार के प्राणियों का दुःख जानते थे, वे कुशल-आठ प्रकार के कर्मों का नाश करने वाले आशुप्रज्ञ और मेधावी सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले थे । वे अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी थे, ऐसे यशस्वी तथा भवस्थकेवली अवस्था में जगत् के लोचन मार्ग में स्थित उन भगवान् के धर्म को तुम जानो और धीरता को विचारो।
विवेचन - उपरोक्त रूप से जम्बूस्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का कथन प्रारम्भ करते हैं - चौतीस अतिशयों के धारक तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी संसार के समस्त प्राणियों के दुःखों को जानते इसलिये उनके लिये 'खेदज्ञ' यह विशेषण दिया गया है । खेदज्ञ की संस्कृत छाया क्षेत्रज्ञ भी होती है। आत्मा को क्षेत्र कहते हैं अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानते थे अतः वे आत्मज्ञ या क्षेत्रज्ञ कहलाते थे। आकाश को भी क्षेत्र कहते हैं अतः भगवान् लोकाकाश और अलोकाकाश सभी को जानते थे। कुश नाम का एक घास होता है उसको द्रव्य कुश
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