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________________ अध्ययन ६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 होकर गुणों का कथन करना स्तुति कहलाता है। एक श्लोक से लेकर सात श्लोक तक स्तुति करना साधारण (जघन्य) स्तुति है और १०८ श्लोक तक गुणों का कथन करना उत्कृष्ट स्तुति कहलाता है। ___ उपरोक्त दोनों व्याख्याओं के अनुसार इस अध्ययन का नाम महावीर स्तुति और महावीर स्तव दोनों उचित है। किन्तु मूल को प्रधानता देने पर महावीर स्तुति कहना विशेष उचित है। पुच्छिंसु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतित्थियां य । से के इणेगंत-हियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छिंसु - पूछा, समणा - श्रमण, माहणा - ब्राह्मण, अगारिणो - गृहस्थ (क्षत्रिय आदि) परतित्थिया - पर तीर्थिक, के - कौन है, इण - इस, एगंतहियं - एकान्त हितकारी, अणेलिसं - अनुपम, धम्म - धर्म को, आहु - कहा है, साहु- अच्छी तरह से-भली भांति, समिक्खयाए - सोच विचार कर । .. भावार्थ - श्रमण, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि तथा परतीर्थियों ने पूछा कि - एकान्त रूप से कल्याण करने वाले अनुपम धर्म को जिसने सोच विचार कर कहा है वह कौन है ? । कहं च णाणं कहं दंसणं से, सीलं कहं णायसुयस्स आसी। . जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुयं बूहि जहा णिसंतं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - कहं - कैसा, णाणं - ज्ञान, दंसणं - दर्शन, सीलं - शील, णायसुयस्स - ज्ञातपुत्र का, जाणासि - जानते हो, जहातहेणं - यथार्थ रूप से, अहासुयं - जैसा सुना है, बूहि - बतलाओ, णिसंतं- निश्चय (अवधारित) किया है । भावार्थ - ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी के ज्ञान दर्शन और चारित्र कैसे थे? हे भिक्षो ! आप यह जानते हैं इसलिये जैसा आपने सुना, देखा और निश्चय किया है सो हमें बताइये । . विवेचन - उपरोक्त दो गाथाओं में श्री जम्बूस्वामी द्वारा अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उत्तमोत्तम गुणों और आदर्शों के सम्बन्ध में विनय पूर्वक पूछे गये चार प्रश्नों का कथन है। वे इस प्रकार हैं - १. एकान्त हितकारी अनुपम धर्म के प्ररूपक कौन हैं ? २. ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का ज्ञान कैसा था ? ३. उनका दर्शन कैसा था? और ४. उनका चारित्र, शील कैसा था ? श्री जम्बूस्वामी स्वयं तो श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के आदर्श गुणों को और आदर्श जीवन को भली प्रकार जानते ही थे। फिर इस प्रकार की जिज्ञासाएं प्रस्तुत करने का क्या कारण है ? इसके समाधानार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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