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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एवमाहिजति तंजहा - अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे, सहसम्मुइए समणे, भीम, भयभेरवं, उरालं, अचले परीसहे सहइ त्ति कटु, देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे ।"
अर्थ - काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के विशेष प्रचलित ये तीन नाम है-यथा१. माता-पिता के द्वारा दिया गया नाम हैं "वर्द्धमान"
२. समभाव में स्थित एवं स्वाभाविक सन्मति होने के कारण "श्रमण"। ___३. सभी प्रकार के भयंकर एवं भय को उत्पन्न करने वाले घोर परीषहों को अचल, अविचल, अडोल, अकम्प होकर सहन किये तब देवों ने उनका नाम दिया "श्रमण भगवान् महावीर।"
प्रश्न - इस अध्ययन का नाम महावीर स्तुति है अथवा महावीर स्तव?..
उत्तर - मूल पाठ में इस अध्ययन का नाम 'महावीर स्तुति' दिया गया है और चूर्णिकार ने इस अध्ययन का नाम 'महावीर स्तव' दिया है। . ___प्रश्न - स्तुति और स्तव इन दोनों का क्या अर्थ है ? - उत्तर - "स्तवः गुणोत्कीर्तनम्, स्तुतिः असाधारण गुणोत्कीर्तनम्, तीर्थकर विषये तद् अतिशय वर्णनम्"
अर्थ-साधारण गुणों का कथन करना स्तव कहलाता है और असाधारण (विशेष) गुणों का कथन करना स्तुति कहलाता है।
प्रश्न - स्तुति और स्तव शब्द में परस्पर क्या अन्तर है ? . उत्तर - स्तवाः देवेन्द्रस्तवादयः स्तुतयः एकादिसप्त श्लोकान्ताः, यत उक्तम् - एगदुगतिसिलोगा ( ओ) अण्णेसिं जाव हुंति सत्तेव। देविदत्यवमाई तेण परं थुत्तया होति ॥१॥
अर्थ - देवेन्द्र स्तव को स्तव कहते हैं । जैसे कि-शक्रेन्द्र के द्वारा भगवान् को किया हुआ नमस्कार 'शक्रस्तव' कहलाता है। यथा - णमोत्थुणं।
एक श्लोक से लेकर सात श्लोक तक गुणोत्कीर्तन करना स्तुति कहलाता है यथा - चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स का पाठ)। (उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में थवथुई मंगलं' का यह अर्थ किया है)
अभिधान राजेन्द्र कोश में तो अर्थ इस प्रकार किया है - 'स्तवः शक्रस्तवरूपः। स्तुतिर्या ऊर्वीभूय कथनरूपाः अथवा एकाऽऽदिसप्तश्लोकान्ताः यावदन्टोत्तरशतश्लोका वाच्याः।'
अर्थ-बैठे-बैठे गुणों का कथन करना स्तव कहलाता है यथा - शक्रस्तव (णमोत्थुणं)। खड़े
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