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________________ अध्ययन ११ . २६७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्यजनस्य च। यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥ अर्थ - जो पुरुष ग्राम, क्षेत्र और घर आदि का परिग्रह करता है, उसको शुभ ध्यान कहाँ से होगा ? परिग्रह मोह का घर है, शान्ति का विनाशक है, चित्त को चंचल करता है, अतः आरंभ परिग्रह में प्रवृत्त रहने वाले और उसी बात की चिंता करने वाले पुरुषों को शुभ ध्यान कहाँ से हो सकता है ? बौद्ध लोग तो मांस, मदिरा आदि तक का सेवन करते हैं। मदिरा, मांस का दूसरा नाम धर देते हैं, पर इतने मात्र से मांस मदिरा निर्दोष नहीं हो जाते हैं। उपरोक्त कारणों से ये भाव समाधि से दूर हैं। जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाहमं ।। २७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥२८॥ कठिन शब्दार्थ - ढंका - ढंक, कंका - कंक, कुलला - कुरर, मग्गुका - जल मुर्गा, सिही - शिखी, मच्छेसणं - मछली की खोज में, कलुसा - कलुष पापी, अहमा - अधम, मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया- अनार्य विसएसणं-विषय की एषणा में। भावार्थ - जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमूर्ग और शिखी नामक पक्षी जल में रह कर सदा मच्छली पकडने के ख्याल में रत रहते हैं इसी तरह कोई मिथ्यादृष्टि अनार्या श्रमण सदा विषय प्राप्ति का ध्यान करते रहते हैं, वे वस्तुतः पापी और नीच हैं । सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इह मेगे य दुम्मइ । उम्मग्ग-गया दुक्खं, घायमेसंति तं तहा ।। २९॥ कठिन शब्दार्थ - विराहित्ता - विराधना करके, दुम्मतइ - दुर्मति, उम्मग्ग गया - उन्मार्ग में प्रवृत्त, घायमेसंति - घात (मृत्यु) की कामना करते हैं । . भावार्थ - इस जगत् में शुद्ध मार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त शाक्य आदि दुःख और नाश को प्राप्त करते हैं । - विवेचन - सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग है, उससे विपरीत कुमार्ग की प्ररूपणा करके वे अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। जहा आसाविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छइ पारमागंतुं, अंतरा य विसीयइ ।। ३०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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