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अध्ययन १० 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - जहाहि - छोड़ो, वित्तं - धन को, पसवो- पशु आदि को, पिया - प्रिय, मित्ता - मित्र, लालप्पइ - रोता है, हरंति - हर लेते हैं । ... भावार्थ - धन और पशु आदि सब पदार्थों को छोड़ो । बान्धव तथा प्रियमित्र कुछ भी उपकार नहीं करते तथापि मनुष्य इनके लिये रोता है और मोह को प्राप्त होता है । जब वह प्राणी मर जाता है तब दूसरे लोग उसका कमाया हुआ धन हर लेते हैं । । सीहं जहा खुड्डुमिगा चरंता, दूरे चरंति परिसंकमाणा।
एवं तु मेहावी समिक्ख धम्मं, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥ २० ॥
कठिन शब्दार्थ - खुड्डुमिगा - छोटे मृग, चरंता - विचरते हुए, परिसंकमाणा - शंका करते हुए, मेहावी - मेधावी-बुद्धिमान्, समिक्ख - विचार कर, दूरेण - दूर से ही, परिवजएज्जा - वर्जित करे ।
भावार्थ - जैसे पृथिवी पर विचरते हुए छोटे मृग मरण की शंका से सिंह को दूर ही छोड़कर विचरते हैं इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष धर्म का विचार कर पाप को दूर ही छोड़ देवे ।
विवेचन - शास्त्रकार यहाँ दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि- जिस प्रकार जंगल में हरिण और सिंह दोनों रहते हैं। परन्तु सिंह के द्वारा मारे जाने के भय से सिंह से दूर ही घास पानी आदि आहार करते हैं। इसी प्रकार संयम मर्यादा में स्थित बुद्धिमान् मनि पाप के कारण रूप सावद्य अनुष्ठान को छोड़ कर शुद्ध संयम का पालन करे।। २० ॥
संबुज्झमाणे उ णरे मइमं, पावाउ अप्पाणं णिवट्टएज्जा। हिंसप्पसूयाइं दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ-संबुझमाणे - समझने वाला, मइमं - मतिमान-बुद्धिमान्, पावाउ - पाप कर्म से, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, . णिवठ्ठएज्जा - निवृत्त करे, हिंसप्पसूयाई - हिंसा से उत्पन्न, वेराणुबंधीणि - वैर उत्पन्न करने वाले, महन्भयाणि- महाभयदायी। . . भावार्थ - धर्म के तत्त्व को समझने वाला पुरुष पाप से अलग रहता है । हिंसा से उत्पन्न कर्म वैर उत्पन्न करने वाले महाभयदायी तथा दुःख उत्पन्न करते हैं यह जानकर हिंसा न करे ।
मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं।
सयं ण कुज्जा ण य कारवेज्जा, करंतमण्णं पि य णाणुजाणे ॥ २२ ॥ • कठिन शब्दार्थ - मुसं - मृषा-असत्य, बूया - बोले, अत्तगामी- आत्मगामी, एयं - यह, णिव्वाणं - निर्वाण-मोक्ष, कसिणं - कृत्स्न-संपूर्ण, समाहिं - समाधि को, करंतं - करते हुए, अण्णं - दूसरे को, ण - नहीं, अणुजाणे - अच्छा जाने ।
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