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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000 एवं जैसे सब रसवालों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ है इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । विवेचन - जो अपने आप उत्पन्न होते हैं वे स्वयंभू कहलाते हैं। इस अपेक्षा से देवों को स्वयम्भू कहते हैं। वे देव जिस समुद्र के पास आकर रमण (क्रीड़ा) करते हैं उस को स्वयम्भूरण समुद्र कहते हैं। समस्त द्वीप और समुद्रों के अन्त में रहा हुआ वह स्वयम्भूरमण समुद्र सब समुद्रों में प्रधान और श्रेष्ठ है तथा नागकुमार जाति के भवनपति देवों में धरणेन्द्र श्रेष्ठ है एवं ईख के रस के समान जिसका जल मधुर है वह इक्षुरसोदक समुद्र जैसे समस्त रस वाले समुद्रों में प्रधान है क्यों कि वह अपने माधुर्य गुणों से सब समुद्रों की पताका के समान स्थित है अथवा सब रसों में इक्षु रस ( ईख का रस ) प्रधान है इसी तरह जगत् के तीनों काल की अवस्था को जानने वाले भगवान् महावीर स्वामी विशिष्ट तपश्चर्या के द्वारा समस्त लोक की पताका के समान सब से ऊपर स्थित हैं। १७८ हत्थी एरावणमाहु णाए, सीहो मियाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवे, णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१ ॥ हाथियों में, एरावणं- एरावण, सीहो- सिंह, मियाणं- मृगों में, पक्षियों में, वेणुदेवे गरुले - वेणुदेव गरुड़, णिव्वाणवादीण - कठिन शब्दार्थ - हत्थीसु सलिलाणं - नदियों में, पक्खीसु निर्वाण वादियों में, इह - यहाँ । भावार्थ - हाथियों में ऐरावण, मृगों में सिंह, नदियों में गङ्गा और पक्षियों में जैसे वेणुदेव गरुड़ श्रेष्ठ हैं इसी तरह मोक्षवादियों में भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । " विवेचन पहले देवलोक का नाम सुधर्म है। उसके इन्द्र का नाम शक्र । वर्तमान में जो शक्र है वह कार्तिक सेठ का जीव है। भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के समय का कथानक है। यथा पृथ्वी भूषण नगर में प्रजापाल नाम का राजा राज्य करता था । वहाँ कार्तिक नाम का सेठ रहता था। वह बारह व्रत धारी श्रावक था । उसने श्रावक की पांचवीं पडिमा का एक सौ बार आराधन किया था। इसलिये उसका दूसरा नाम 'शत्क्रतु" भी कहा जा सकता है। एक समय एक परिव्राजक वहाँ आया। राजा उसका भक्त था इसलिये सब लोग उसके भक्त बन गये सिर्फ कार्तिक सेठ ने उसको वन्दना नमस्कार नहीं किया। इससे वह परिव्राजक बहुत नाराज हुआ। एक समय उस परिव्राजक को राजा ने अपने महल में पारणा करने के लिये निमंत्रित किया उसने यह शर्त रखी कि यदि कार्तिक सेठ आकर मुझे भोजन करावे तो मैं आपके यहाँ पर भोजन कर सकता हूँ। राजा ने कार्तिक सेठ को आज्ञा दी तब कार्तिक सेठ को राजा के वहाँ उसे भोजन कराने जाना पड़ा। जब वह संन्यासी को परोस रहा था तब संन्यासी ने अपने नाक पर अङ्गुली रखकर इस प्रकार की चेष्टा की कि देख तूने तो मुझे नमस्कार नहीं किया Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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