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बतलाए हैं। इन चारों का स्वरूप बताकर इन्हें एकान्त दृष्टि वाले बताकर इनका खण्डन कर,
जिनमार्ग के सुमार्ग का प्रतिपादन किया गया है। तेरहवां अध्ययन 'यथातथ्य' इस अध्ययन में नाम से ही यह स्व मेव सिद्ध है कि यह अध्ययन यथार्थ तत्त्वों को प्रतिपादित करने वाला अध्ययन है । इस अध्ययन में सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का रहस्य सुसाधुओं के शील, सदाचार, सदनुष्ठान और उनके समस्त कार्य मोक्ष प्राप्ति में सहायक और कुसाधुओं के समस्त संसार परिभ्रमण के कारण बतलाए हैं।
चौदहवाँ अध्ययन 'ग्रन्थ ' ग्रन्थ का शब्दिक अर्थ गांठ होता है। बाह्य वस्तुओं पर आसक्ति बाह्य ग्रन्थि कहलाती और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह आभ्यन्तर ग्रन्थि कहलाती है। जैन मुनि दोनों प्रकार की ग्रन्थियों से मुक्त होता है । इस अध्ययन में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। : पन्द्रहवाँ अध्ययन 'आदानीय ' करना द्रव्य आदान है। भाव आदान दो प्रकार उदय, मिथ्यात्व अविरति आदि कर्म बन्ध के मोक्षार्थी द्वारा किये गये समस्त सम्यक् पुरुषार्थ कर्म क्षय का हेतु होने । इस अध्ययन में दोनों भाव आदानों का सुन्दरं स्वरूप बतलाया गया है !
आदान यानी ग्रहण करना, धन आदि का ग्रहण का है। प्रशस्त और अप्रशस्त । क्रोध आदि का आदान रूप होने से अप्रशस्त भावादान है तथा प्रशस्त भांव-आदान
सोलहवाँ अध्ययन 'गाथा' इस अध्ययन में श्रमण, माहन, भिक्षु और निर्ग्रन्थ का पथक-पथक स्वरूप बता कर उनके गुणों का प्रतिपादन किया गया है। पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में साधुओं के जो क्षमादि गुण बतलाए गये हैं, उन सब को एकत्र करके प्रशंसात्मक रूप इस अध्ययन में कहे गये हैं।
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आदरणीय डोशी सा. समय संघ द्वारा इस आगम का प्रकाशन हुआ था। जिसके अनुवादक पूज्य श्री उमेशमुनिजी म. सा. 'अणु' थे। जिसमें मूल पाठ के साथ संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद था। तत्पश्चात् संघ की 'आगम बत्तीसी' प्रकाशन योजना के अन्तंगत इसका प्रकाशन संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र की शैली का अनुसरण कर किया गया. जिसके अन्तर्गत मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ तथा आवश्यकतानुसार विवेचन किया गया। इसका मुख्य आधार जैनाचार्य पूज्य जवाहरलालजी म. सा. के निर्देशन में अनुवादित सूत्रकृतांग सूत्र के चार भाग हैं, जो पण्डित अम्बिका दत्त जी ओझा व्याकरणाचार्य द्वारा सम्पादित किये गये हैं ।
इस सूत्र की प्रेस कापी तैयार कर सर्वप्रथम इसे पूज्य घेवरचन्दजी 'वीरपुत्र' म. सा. को तत्त्वज्ञ सुश्रावक मुमुक्षु श्री धनराजजी बड़ेरा (वर्तमान श्री धर्मेशमुनिजी म. सा.) तथा सेवाभावी
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