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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
पुढोवमे धुणइ विगयगेही, ण सण्णिहिं कुव्वइ आसुपण्णे । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंत चक्खू ॥ २५ ॥
कठिन शब्दार्थ - पुढोवमे - पृथ्वी की उपमा वाले, धुणइ- कर्म मल को दूर करता है, विगयगेहीविगतगृद्धि-अनासक्त-आसक्ति रहित, सण्णिहिं - सन्निधि-संग्रह-संचय, तरिठं - पार करने के लियें, समुहं - समुद्र को, महाभवोघं - महाभवौघ-महान् संसार को, अभयंकरे - अभयंकर, अणंतचक्खू - अनंत चक्षु वाले-अनंतज्ञानी ।
भावार्थ - भगवान् पृथिवी की तरह समस्त प्राणियों के आधार हैं। वह आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने वाले और गृद्धि रहित हैं। भगवान् तात्कालिक बुद्धि वाले और क्रोधादि के सम्पर्क से रहित हैं। भगवान् समुद्र की तरह अनन्त संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त हैं। भगवान् प्राणियों को अभय करने वाले तथा अष्टविध कर्मों को क्षपण करने वाले एवं अनन्त ज्ञानी हैं।
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं च अज्झत्थदोसा। .. एयाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वइ पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥
कठिन शब्दार्थ - कोहं - क्रोध, माणं - मान, तहा - तथा, मायं - माया, लोभं - लोभ, चउत्थं - चौथा, अज्झत्थदोसा- अध्यात्म-दोषों का, वंता - वमन करने वाला, अरहा - अहँत्, कुव्वइ - करते, कारवेइ - दूसरों से करवाते ।
भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी महर्षि हैं वे क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीत कर न स्वयं पाप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं और न करने वालों का अनुमोदन भी करते हैं।
विवेचन - दो प्रकार के दोष होते हैं । बाहरी दोष - यथा- लूला, लंगडा, काणा आदि । आभ्यंतर दोष – क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों को कषाय कहते हैं । कषाय शब्द का अर्थ इस प्रकार है -
कष्यन्ते पीड्यन्ते प्राणिनः अस्मिन् इति कषः,संसारःइति। कषस्य संसारस्य आयः लाभः इति कषायः ।।
अर्थात् जिसमें प्राणी कष्ट को प्राप्त होते हैं उसे कष कहते हैं । कष का अर्थ है संसार । जिससे संसार की वृद्धि हो उसे कषाय कहते हैं ।
कारण का नाश हो जाने पर कार्य का भी नाश हो जाता है । यह न्याय है । इसलिये संसार की स्थिति का कारण क्रोध आदि कषाय है जिनको यहां पर आध्यात्म दोष कहा गया है इन चारों कषायों का त्याग कर भगवान् महावीर तीर्थङ्कर और महर्षि हुए थे। महर्षिपन तभी सार्थक होता है जब
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