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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं इसी तरह स्त्री सेवन के लोभ में पड़कर जीव संसार भ्रमण करता है अतः सुअर आदि को वध्यस्थान में पहुंचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसङ्ग जीव के नाश का कारण है इसलिये विद्वान् पुरुष स्त्री प्रसङ्ग कदापि न करे । जो पुरुष अपनी इन्द्रियों को विषयभोग में प्रवृत्त नहीं करता है तथा रागद्वेष को जीतकर वीतराग हो गया है वह इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ पुरुष अनुपम भावसन्धि को प्राप्त करता है।
अणेलिसस्स खेयण्णे, ण विरुझिज्ज केणइ । मणसा-वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - खेयण्णे - खेदज्ञ, विरुझिज - विरोध करे, चक्खुमं - चक्षुष्मान् ।
भावार्थ - जो पुरुष संयम पालन करने में तथा तीर्थंकरोक्त धर्म के सेवन में निपुण है वंह मन वचन और काया से किसी प्राणी के साथ विरोध न करे । जो पुरुष ऐसा है वही परमार्थदर्शी है।
विवेचन - वीतराग भगवान् के फरमाए हुए धर्म के समान अन्य कोई धर्म नहीं है ऐसे धर्म को प्राप्त कर जगत् के सर्व जीवों के साथ मैत्री भाव स्थापित करता हुआ जो किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध नहीं करता है। वह वास्तव में परमार्थ दर्शी हैं ॥ १३ ॥
से हुचक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहइ, चक्कं अंतेण लोट्टइ ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - चक्खू - नेत्र, कंखाए - आकांक्षा का, अंतेण - अंत से, खुरो - क्षुरप-उस्तरा, .. वहइ - चलता है, चक्कं- चक्र, लोट्टइ - चलता है ।
___ भावार्थ - जिस पुरुष को भोग की तृष्णा नहीं है वही सब मनुष्यों को नेत्र के समान उत्तम मार्ग दिखाने वाला है । जैसे अस्तुरा का अग्रभाग और चक्र का अन्तिम भाग ही चलता है इसी तरह मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार को क्षय करता है।
विवेचन - जिस पुरुष ने विषय वासना का अन्त कर दिया वह अन्य जीवों को मोक्ष के मार्ग को दिखाने वाला होने से नेत्र के समान है। जैसे नाई का उस्तरा और चक्र का अंतिम भाग ही मार्ग में चलता है उसी तरह विषय और कषाय रूप मोहनीय कर्म का अन्त ही इस दुःख रूप संसार का अंत करने वाला है ॥ १४ ॥
अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्म-माराहिउं णरा ।। १५॥
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