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________________ *********000 कठिन शब्दार्थ - रुद्द - रौद्र, उसुचोइया - बाण से प्रेरित हो कर, हत्यिवहं - हाथी के समान, वहंति - भार वहन करते हैं, दुरुहित्तु चढ़ कर, आरुस्स - क्रुद्ध होकर, ककाणओ मर्म स्थान को, विनंति - बींध डालते हैं । अध्ययन ५ उद्देशक २ भावार्थ - नरकपाल पापी नैरयिक जीवों के पूर्वकृत पाप को स्मरण करा कर बाण के प्रहार से मार कर हाथी के समान भार ढोने के लिये उनको प्रवृत्त करते हैं । उनकी पीठ पर एक, दो तीन नैरयिकों को बैठा कर चलने के लिये प्रेरित करते हैं तथा क्रोधित होकर उनके मर्म स्थान में प्रहार करते हैं । बाला बला भूमिमणुक्कमंता, पविज्जलं कंटइलं महंतं । विबद्धतप्पेहि विवण्णचित्ते, समीरिया कोट्टबलिं करेंति ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ बला - • बलात्कार से, भूमिं - पृथ्वी पर, अणुक्कमंता - चलते हुए .. पविज्जलं - कीचड से भरी हुई, कंटइलं - कांटों से पूर्ण, विबद्धतप्पेहि अनेक प्रकार से बांधे हुए, विवण्णचित्ते (विसण्णचित्ते ) - मूर्च्छित, कोट्टबलिं - नगरबलि की तरह - खण्ड-खण्ड काट कर चारों ओर फैंक देते हैं । .. भावार्थ- पाप से प्रेरित नरकपाल, बालक के समान पराधीन बिचारे नैरयिक जीव को कीचड से भरी तथा काँटों से पूर्ण विस्तृत पृथिवी पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं तथा दूसरे नैरयिक जीवों को अनेक प्रकार से बाँधकर मूर्च्छित उन बिचारों को खण्ड खण्ड काटकर इधर उधर फेंक देते हैं । वेतालिए णाम महाभितावे, एगायते पव्वयमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ॥ १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगायते एकशिला से बनाया हुआ, अंतलिक्खे पव्वयं - पर्वत, सहस्साण हजारों, मुहुत्तगाणं- मुहूर्तों से, परं अधिक । = भावार्थ - महान् ताप देने वाले आकाश में परमाधार्मिकों के द्वारा बनाया हुआ अतिविस्तृत एक - शिला का एक पर्वत है उस पर रहने वाले नैरयिक जीव, हजारों मुहूर्त्तो से अधिक दीर्घ काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं । - Jain Education International १५७ - - For Personal & Private Use Only विवेचन - गाथा में 'सहस्साण मुहुत्तगाणं' शब्द दिया है जिसका अर्थ है हजारों मुहूर्त्त यहां सहस्र शब्द मात्र उपलक्षण है । जिसका अर्थ है बहुत लम्बे समय तक अर्थात् पल्योपम और सागरोपमों तक नैरयिक जीव वहां दुःख भोगते रहते हैं । अधर - आकाश में, www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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