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अध्ययन २ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००0000000000
किया जाता हूँ किन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीडित किये जाते हैं अतः शीत उष्णादि परीषहों को क्रोधादि रहित होकर सहन करने में विर्य छिपावे नहीं। ... विवेचन - इस जीव ने अनेक योनियों में अनेक कष्ट सहन किये हैं । परन्तु समभाव पूर्वक सहन न करने से कर्मों की वैसी निर्जरा नहीं हो सकी जैसा कि कहा है -
"क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः ।। सोढाः दुःसहशीतताप पवनक्लेशाः न तप्तं तपः ।।
ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न तत्त्वं परं । . तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥"
अर्थ - मैंने शीत उष्ण आदि दुःखों को सहन तो किया परन्तु क्षमा के कारण नहीं । अपितु अशक्ति और परवशता के कारण। मैंने घर के सुखों का त्याग तो किया परन्तु सन्तोष के कारण नहीं अपितु अप्राप्ति के कारण । मैंने शीत, उष्ण और पवन के दुःसह दुःख सहे परन्तु तप की भावना से नहीं । मैंने दिन रात धन का चिन्तन किया परन्तु परम तत्त्व का चिन्तन नहीं किया, मैंने सुख प्राप्ति के लिये वे सभी कार्य किये जो तपस्वी मुनिराज करते हैं। किन्तु उनका फल मुझे कुछ नहीं मिला।
इसलिये संयम पालन करने वाले उत्तम, विचारशील पुरुषों को कर्म निर्जरा की भावना से इन सब कष्टों · को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये जिससे कर्मों की भारी निर्जरा होवे ।
धूणिया कुलियं व लेववं, किसए देह मणासणाइहिं। अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ ।१४।।
कठिन शब्दार्थ - धूणिया - लेप गिरा कर, कुलियं - भित्ति, लेववं - लेप वाली, किसए - कृश कर दें, अविहिंसां - अहिंसा धर्म को, एव- ही, मुणिणा - मुनि ने, अणुधम्मो - अनुधर्म-यही धर्म, पवेइओ - कहा है । - भावार्थ - जैसे लेपवाली भित्ति, लेप गिरा कर कृश कर दी जाती है इसी तरह अनशन आदि तप के द्वारा शरीर को कृश कर देना चाहिए तथा अहिंसा धर्म का ही पालन करना चाहिए क्योंकि सर्वज्ञ ने यही धर्म बताया है ।
विवेचन - दैहिक स्थूलता त्याग मार्ग में-आत्म सामीप्य में प्रायः बाधक होती है । देह के आश्रित ही मन, वचन के योग है । काया को कसने पर मन,वचन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। इसीलिए शास्त्रों में जगह-जगह पर देह-दमन का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है ।
"देह दुक्खं महाफलं" - दशवैकालिक अनशन शब्द से उपलक्षण के द्वारा बारह प्रकार के तप का यहां ग्रहण हो जाता है । सूत्रकार ने
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