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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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सकषाय (हिंसात्मक) तप की, ऊपर ९वीं गाथा में व्यर्थता बताकर यहां अहिंसात्मक तप की उपयोगिता बताई है ।
उणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं ।
एवं दवि उवहाणवं, कम्मं खवइ तवस्सी माहणे । १५ ।
कठिन शब्दार्थ - सउणी- शकुनिका-पक्षिणी, पंसुगंडिया- धूल से भरी हुई, विहुणिय शरीर को कंपा कर, सियं शरीर में लगी हुई, रयं रज-धूल को, उवहाणवं उपधान-तप करने वाला, खवड़ - नाश कर देता है।
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भावार्थ - जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूलि को अपने पंखों को फड़फडाकर. गिरा देती है इसी तरह अनशन आदि तप करने वाला अहिंसाव्रती भव्य पुरुष अपने कर्मों का नाश कर देता है।
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विवेचन - 'उपधान' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है- "मोक्ष प्रति उप-सामीप्येन दधाति इति उपधानं अशनादिकं तपः " अर्थात् जीव को जो मोक्ष के नजदीक पहुंचावे, उसे उपधान कहते हैं अर्थात् अनशन आदि तप को उपधान कहते हैं ।
'माहण' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - " मा वधीः इति प्रवृत्तिः यस्सः सः माहनः" अर्थात् प्राणियों की हिंसा मत करो ऐसा जो उपदेश देता है और वैसा ही आचरण भी करता है उसको 'माहन' कहते हैं।
उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअं तवस्सिणं ।
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डहरा वुड्ढा य पत्थए, कठिन शब्दार्थ - अणगारं प्रार्थना करें, सुस्से थक जाय )
भावार्थ - अनगार (गृह रहित) और एषणा के पालन में तत्पर संयमधारी तपस्वी साधु के निकट आकर उनके बेटे, पोते तथा माता पिता आदि प्रव्रज्या छोड़कर घर चलने की भले ही प्रार्थना करे और कहे कि आप हमारा पालन करें। क्योंकि आपके सिवाय दूसरा हमारा अवलम्बन नहीं है। ऐसा कहते कहते और प्रार्थना करते-करते वे थक जायँ परन्तु वस्तु तत्त्व को जानने वाले मुनि को वे अपने अधीन नहीं कर सकते हैं ।
अवि सुस्से ण य तं लभेज्ज णो ॥ १६ ॥ अनगार-गृह रहित, ठाणठिअं- संयम स्थान में स्थित, पत्थर
जड़ कालुणियाणि कासिया, जइ रोयंति य पुत्तकारणा । दवियं भिक्खुं समुट्ठियं, णो लब्धंति ण संठवित्त ॥ १७ ॥
'लभे जणो' पाठान्तर ।
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