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________________ १८८ - श्री सयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भोग और रात्रि भोजन छोड़ दिया था तथा सदा तप में प्रवृत्त रहते हुए इस लोक तथा परलोक के स्वरूप को जानकर सब प्रकार के पापों को सर्वथा त्याग दिया था। विवेचन - गाथा में "इत्थी सराइभत्तं" शब्द दिया है । जिसका अर्थ है रात्रि भोजन सहित स्त्री अर्थात् कामवासना का त्याग कर दिया था । यह शब्द उपलक्षण मात्र है । उन्होंने प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का तीन करण तीन योग से सर्वथा त्याग कर दिया था । गाथा में "उवहाणवं" शब्द दिया है, जिसका अर्थ होता है उपधानवान् अर्थात् उत्कृष्ट तप करने वाला। तीर्थंकर उत्कृष्ट तप करने वाले होते हैं। सोच्चा य धम्मं अरहंत भासियं, समाहियं अट्ठ पओवसुद्धं। . .. तं सहहाणा य जणा अणाऊ, इंदाव देवाहिव आगमिस्संति ॥ २९ ॥ ।त्ति बेमि । कठिन शब्दार्थ - अरहंत भासियं - अरिहन्त भाषित, धम्म- धर्म को, सोच्चा - सुन कर, समाहियं - समाहित-युक्तियुक्त, अट्ठपदोवसुद्धं- अर्थ और पदों से शुद्ध, सदहाणा - श्रद्धा करने वाले, जणा - जीव मनुष्य, अणाऊ - अनायुष-मोक्ष, देवाहिव - देवों के स्वामी, आगमिस्संति - होते हैं । भावार्थ - अरिहन्त देव के द्वारा कहे हुए युक्तिसङ्गत तथा शुद्ध अर्थ और पद वाले इस धर्म को सुन कर जो जीव इसमें श्रद्धा करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा देवताओं के अधिपति इन्द्र होते हैं । .. विवेचन - श्री सुधर्मास्वामी तीर्थङ्कर भगवान् के गुणों को बताकर अपने शिष्यों से कहते हैं कि यह श्रुत और चारित्र रूप धर्म तीर्थङ्कर भगवन्तों द्वारा कहा हुआ है । यह शुद्ध युक्ति और निर्दोष हेतुओं से संगत है । यह अर्थ (अभिधेय पदार्थ) और पदों (वाचक शब्दों) से दोष रहित है । ऐसे जिनभाषित धर्म में जो जीव श्रद्धा रखते हैं, वे आयु कर्म से रहित होकर सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं और यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो इन्द्रादि देवाधिपति होकर दूसरे भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। "तिबेमि इति ब्रवीमि" श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। ॥महावीर स्तुति नामक छठा अध्ययन समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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