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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ८. छंदणा - गोचरी में लाये हुए आहारादि के लिये साधु को आमंत्रण देना जैसे कि 'यदि आप के उपयोग में आ सके तो इस आहार आदि में से ग्रहण कीजिये ।' - ९. निमंत्रणा - आहार लाने के लिये साधु को पूछना । जैसे कि 'क्या आपके लिये आहार आदि लाऊं ?' ५० १०. उवसंपद - ज्ञानादि प्राप्त करने के लिये अपना गच्छ छोड़ कर किसी विशेष ज्ञान वाले आचार्य आदि का आश्रय लेना उवसंपद (उपसंपदा) समाचारी है । गाथा में 'चर्या' शब्द से 'ईर्या समिति' का ग्रहण हुआ है तथा 'शय्या' शब्द से 'आदान समिति' और 'भत्तपाण' शब्द से एषणा समिति का ग्रहण किया है। किन्तु गाथा में 'च' शब्द दिया है उससे 4 'भाषा समिति' और 'उच्चार प्रस्रवण समिति' का भी ग्रहण हो जाता है। एएहिं तिर्हि ठाणेहिं, संजए सययं मुणी । उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए ॥ १२॥ - कठिन शब्दार्थ- सययं सतत सदा, संजए संयत-संयम रखता हुआ, उक्कसं- उत्कर्ष - मान, जलणं - ज्वलन - क्रोध, णूमं गहन- माया, मज्झत्थं मध्यस्थ-लोभ को, विगिंचए - त्याग करे । भावार्थ - ईर्य्यासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति और एषणासमिति इन तीनों स्थानों में सदा संयम रखता हुआ मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करे । विवेचन - यद्यपि इस गाथा में 'तीन समिति' का ही ग्रहण किया है किन्तु जैसा कि ऊपर की गाथा में बतला दिया गया है तदनुसार यहाँ पांचों समितियों का ग्रहण कर लेना चाहिये। समितिवन्त मुनि को क्रोधादि चारों कषायों का त्याग कर देना चाहिये । इस गाथा में क्रोध को 'ज्वलन' कहा है। जो अपनी आत्मा को तथा चारित्र को जलाता है उसे ज्वलन कहते हैं। यह क्रोध है। जो अपने को ऊंचा समझता है व दूसरों को नीचा समझता है उसको 'उत्कर्ष' कहते हैं इसलिये यहाँ 'मान' को उत्कर्ष कहा है। माया अर्थात् छल कपट को जान लेना सरल बात नहीं है इसलिये माया को 'णूम' (गहन) कहा है। जो प्राणियों के मध्य (हृदय) में निवास करता है उसको 'मध्यस्थ' कहते हैं इसलिये यहाँ लोभ को मध्यस्थ कहा गया है। अतः मुनि इन चारों कषायों का सर्वथा त्याग कर दे। कषाय के त्याग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसा कि कहा है "कषाय मुक्तिः किलमुक्तिरेव" अर्थात् कषाय से छुटकारा पाना यही मुक्ति (मोक्ष) है। Jain Education International - - - 000000000000 उपलक्षण से शेष दो समितियों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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