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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
है । याञ्चा का परीषह सहन करना बहुत कठिन है । उस पर भी साधारण पुरुष साधु को देखकर कहते हैं कि ये लोग अपने पूर्व कृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं तथा भाग्यहीन हैं।
विवेचन - पञ्च महाव्रतधारी साधु-साध्वी अठारह पापों के त्यागी होते हैं। इसलिये वे आरम्भ आदि स्वयं नहीं करते, न करवाते और करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करते। संयम जीवन का निर्वाह करने के लिए शरीर को भाड़ा देने रूप गोचरी द्वारा आहार आदि दूसरों से मांग कर लाते हैं। उसको जायणा (याञ्चा) परीषह कहते हैं। संयम के स्वरूप को नहीं जानने वाले गोचरी आदि करते हुए साधु को देख कर कहते हैं कि - 'इनको कमा कर खाना नहीं आता इसलिये साधु-बनकर मांग कर खाते हैं।' ये भाग्य हीन हैं और अपने पूर्वजन्म में किये हुए पापों का फल भोग रहे हैं । अनार्य पुरुषों के ऐसे वचनों को सुन कर साधु को खेदखिन्न नहीं होना चाहिये बल्कि इन परीषहों को समभावं पूर्वक सहन । करना चाहिये।
एए सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीयंति, संगामम्मि व भीरुया ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - सद्दे - शब्दों को, अचायंता - सहन नहीं कर सकते हए, संगामम्मि - संग्राम में, भीरुया (भीरुणो)- भीरु (कायर) पुरुष ।
भावार्थ - ग्राम नगर अथवा अंतराल में स्थित मंदमति प्रव्रजित पूर्वोक्त निन्दाजनक शब्दों को सुनकर इस प्रकार विषाद करता है जैसे संग्राम में कायर पुरुष विषाद करता है । । ।
अप्पेगे खुधियं भिक्खू, सुणी डंसइ लूसए । तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - अपि - भी, एगे - कितनेक, खुधियं - क्षुधित - भूखे, लूसए - लूषक-क्रूर प्राणी, तेउपुट्ठा - तेज (अग्नि) के द्वारा स्पर्श किया हुआ, पाणिणो - प्राणी ।
भावार्थ - भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए क्षुधित साधु को यदि कोई क्रूर प्राणी कुत्ता आदि काटता है तो उस समय कायर प्रव्रजित इस प्रकार दुःखी हो जाते हैं जैसे अग्नि के स्पर्श से प्राणी घबराते हैं।
विवेचन - "खुधियं" के स्थान पर "खुझियं" और 'झुझियं' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। तीनों शब्दों की संस्कृत छाया 'क्षुधित' होती है जिसका अर्थ है - 'भूखा' । प्रथम तो साधु भूखा है इसलिये गोचरी के लिये निकला है। उस समय कुत्ता आदि क्रूर प्राणी उस पर झपटता है और काट भी खा जाता है। तब वह नव-दीक्षित एवं कायर साधक घबरा जाता है। किन्तु संयम में परीषह उपसर्ग तो आते ही हैं। मोक्षार्थी साधक को घबराना नहीं चाहिये। शूर वीर बन कर आये हुये परीषह उपसर्गों को दृढ़ता के साथ समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये।
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