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अध्ययन १४
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भावार्थ - जिससे हास्य उत्पन्न होता हो ऐसा शब्द तथा शरीर आदि का व्यापार साधु न करे तथा हास्य से भी पापमय धर्म को न कहे । रागद्वेष रहित साधु जो वचन दूसरे को दुःखित करता है वह सत्य हो तो भी न कहे । एवं साधु पूजा सत्कार आदि को पाकर मान न करे और अपनी प्रशंसा न करे । साधु सदा लोभ आदि और कषायों से रहित होकर रहे ।
विवेचन - झूठ बोलने के चार कारण हैं - क्रोध, लोभ, हंसी और भय। मुनिराज इन चारों के • वश होकर कदापि झूठ न बोले किन्तु कषाय के ऊपर विजय प्राप्त करे। जो वचन सत्य है किन्तु कठोर है और दूसरें की हीनता दिखाने वाला है ऐसा वचन न बोले तथा अपनी आत्मा प्रशंसा न करे॥ २१ ॥
संकेज याऽसंकिय-भाव भिक्खू, विभजवायं च वियागरेग्जा। भासादुयं धम्म-समुट्ठिएहि, वियागरेजा समयासुपण्णे ॥ २२ ॥
कठिन शब्दार्थ - असंकियभाव - शंका रहित, विभज्ज-वायं - विभज्यवाद-स्याद्वादमयवचन, वियागरेजा - बोले, भासादुयं - दो प्रकार की भाषा, धम्म समुट्ठिएहि - धर्माचरण करने में प्रवृत्त, समया - समभाव से, आसुपण्णे - आशुप्रज्ञ-बुद्धिमान्।
भावार्थ - सूत्र और अर्थ के विषय में शङ्का रहित भी साधु शङ्कितसा वाक्य बोले । व्याख्यान आदि के समय स्याद्वादमय वचन बोले । धर्माचरण करने में प्रवृत्त रहने वाले साधुओं के साथ विचरता हुआ साधु सत्यभाषा और जो भाषा सत्य नहीं तथा मिथ्या भी नहीं है इन दोनों भाषाओं को बोले ।
धनवान् और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे । .....अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसेणं ।
- ण कत्थइ भास विहिंसइज्जा, णिरुद्धगं वावि ण दीहइज्जा ॥ २३ ॥ ___कठिन शब्दार्थ - अणुगच्छमाणे - अनुसरण करते हुए यथार्थ रूप में समझते हुए, वितहं - विपरीत, विजाणए - समझते हैं, अकक्कसेणं - अकर्कश वचन से-कोमल शब्दों से, विहिंसइजा - निंदा (तिरस्कार) करे, णिरुद्धगं - छोटी बात को, दीहइजा-दीर्घ करे। . भावार्थ - पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर धर्म की व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई बुद्धिमान् पुरुष ठीक ठीक समझ लेते हैं और कोई मन्दमति पुरुष विपरीत समझते हैं । उन विपरीत समझने वाले मन्दमतिओं को साधु कोमल शब्दों के द्वारा समझाने का प्रयत्न करे और जो अर्थ छोटा है उसे व्यर्थ शब्दाडम्बरों से विस्तृत न करे ।
समालवेज्जा पडिपुण्णभासी, णिसामिया समिया-अट्ठदंसी । आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पाव-विवेग भिक्खू ॥ २४ ॥
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