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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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कठिन शब्दार्थ - सेयाय - कल्याणकारी, अप्पगं - अपने को, णिरुंभित्ता - रोक कर, सयं अपने, पाणिणा- हाथ से, णिलिज्जेज्जा - स्पर्श करे ।
भावार्थ - स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा स्त्री संसर्ग कल्याण का नाशक इसलिये साधु स्त्री तथा पशु को अपने हाथ से स्पर्श न करे ।
विवेचन - उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा है
जहा बिराला सहस्स मूले, ण मूसगाणं वसही पसत्था ।
मेव इत्थीलियस मज्झे, ण बंभयारिस्स खमो णिवासो ॥ १३ ॥
अर्थ - जहाँ बिल्ली रहती हो वहाँ चूहों का रहना ठीक नहीं है क्योंकि चूहे चाहे कितनी ही सावधानी रखें किन्तु किसी न किसी समय उनके मारे जाने का भय बना ही रहता है। इसी प्रकार स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में ब्रह्मचारी का रहना उचित नहीं है क्योंकि वह बिल्ली की सावधानी रखे तो भी कभी न कभी उसके ब्रह्मचर्य के विनाश की संभावना बनी ही रहती है। अतः उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्ययन में कहे हुए दस ब्रह्मचर्य समाधि स्थानों का पालन करना चाहिये ।
सुविसुद्ध लेसे मेहावी, परकिरियं च वज्जए णाणी ।
मणसा वयसा कायेणं, सव्व फास-सहे अणगारे ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - सुविसुद्धलेसे विशुद्ध चित्त वाला, पर किरियं पर क्रिया का, वज्जएत्याग करे, सव्वफास सहे सभी स्पर्शों को सहन करता है ।
भावार्थ - विशुद्ध चित्तवाला तथा मर्य्यादा में स्थित ज्ञानी साधु मन वचन और काय से दूसरे की क्रिया को वर्जित करे । जो पुरुष, शीत, उष्ण आदि सब स्पर्शों को सहन करता है वही साधु है ।
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विवेचन पर क्रिया के तीन मतलब हैं १. विषय भोगों के लिये क्रिया करना २. विषयभोग- दान द्वारा दूसरे का उपकार करना और ३. दूसरे से अकारण सेवा लेना । ब्रह्मचारी पुरुष इन तीनों प्रकार से पर क्रिया का त्याग कर दें।
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इच्चेव-माहु से वीरे, धूयरए धूयमोहे से भिक्खू ।
तम्हा अज्झत्थ विसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ २२॥
॥ त्ति बेमि ॥
कठिन शब्दार्थ - धुयर - धूतरज- कर्मों को धून डालने वाला, धूयमोहे - धूतमोह-मोह (राग - द्वेष ) से रहित, अज्झत्थ विसुद्धे- आध्यात्मविशुद्ध-शुद्ध अंतःकरण वाला, सुविमुक्क - सुविमुक्त-का भोग से मुक्त, आमोक्खाए मोक्ष पर्यंत, परिव्वज्जासि संयम पालन करें ।
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