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________________ १८२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीवनदान दिया जाय तो वह करोड़ मोहरों को छोड़ कर भी जीवन लेना पसन्द करता है। इसलिये अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्रकार फरमाते हैं - सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविठंण मरिज्झिउं। तम्हा पाणवहं घोरं णिग्गंथा वजयंतिणं ॥ अर्थ - संसार के सभी प्राणी जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता है। इसीलिये निर्ग्रन्थ मुनिराज प्राणीवध को घोर पाप समझ कर उसका तीन करण तीन योग से त्याग करते हैं। अर्थात् स्वयं किसी प्राणी का प्राणवध करते नहीं, करवाते नहीं, करते हुए को भला भी नहीं जानते मन से, वचन से और काया से। उपरोक्त सब उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि अभयदान सर्व श्रेष्ठ है। साधारण लोगों को दृष्टान्त देकर जो बात समझायी जाय वह सरलता से समझ में आ सकती है। इसलिये अभयदान की प्रधानता बतलाने के लिये टीकाकार ने एक कथा दी है वह इस प्रकार है - ... बसन्तपुर नगर में अरिमर्दन नामका राजा राज्य करता था उसके चार रानियाँ थी। किसी एक समय वह अपनी रानियों के साथ झरोखे में बैठा हुआ नगर की शोभा देख रहा था। उस समय उन्होंने एक चोर को देखा। उस चोर के गले में कनेर के फूलों की लाल माला पहनाई गयी थी और लाल ही कपड़े पहनाए गये थे और लाल चन्दन लगाया गया था उसके आगे आगे उसके वध की सूचना देने वाला ढिढोरा पीटा जा रहा था। चाण्डाल लोग उसको राजमार्ग से होते हुए उसे वध स्थान पर ले जा रहे थे। रानियों ने उसे देखा और पूछा कि इसने क्या अपराध किया है ? तब एक सिपाई ने रानियों से कहा कि इसने चोरी करके राजा की आज्ञा के विरुद्ध काम किया है इसलिये इसको मरण की सजा दी गयी है। यह सुनकर एक रानी ने राजा से कहा कि आपने पहले मुझको एक वरदान देने को कहा था सो आज दे दीजिए जिससे मैं इस बिचारे चोर का कुछ उपकार कर सकूँ। राजा ने वर देना स्वीकार कर लिया तब उस रानी ने चोर को स्नान आदि करा कर तथा उत्तम वस्त्र और अलङ्कारों से सुशोभित करके एक हजार मोहरों के खर्च से एक दिन शब्दादि पांचों विषयों का भोग दिया। इसके पश्चात् दूसरे दिन दूसरी रानी ने एक लाख मोहरें खर्च करके उसे सब प्रकार के भोग दिये। तीसरी ने तीसरे दिन एक करोड़ मोहरे खर्च करके उसको सब प्रकार के भोग दिये। चौथी रानी ने राजा से निवेदन किया कि स्वामिन् ! यह चोरी का एवं सब प्रकार के व्यसनों का त्याग कर शुद्ध जीवन जीने की प्रतिज्ञा करता है इसलिये इसे अभय दान देना चाहिए। राजा ने उस बात को स्वीकार कर लिया। तब चौथी रानी ने उस चोर को सब प्रकार की प्रतिज्ञा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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